अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
कृ॑णु॒त धू॒मं वृ॑षणः सखा॒योऽद्रो॑घाविता॒ वाच॒मच्छ॑। अ॒यम॒ग्निः पृ॑तना॒षाट् सु॒वीरो॒ येन॑ दे॒वा अस॑हन्त॒ दस्यू॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒णु॒त । धू॒मम् । वृ॒ष॒ण॒: । स॒खा॒य॒: । अद्रो॑घऽअविता । वाच॑म् । अच्छ॑ । अ॒यम् । अ॒ग्नि: । पृ॒त॒ना॒षाट् । सु॒ऽवीर॑: । येन॑ । दे॒वा: । अस॑हन्त । दस्यु॑न् ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कृणुत धूमं वृषणः सखायोऽद्रोघाविता वाचमच्छ। अयमग्निः पृतनाषाट् सुवीरो येन देवा असहन्त दस्यून् ॥
स्वर रहित पद पाठकृणुत । धूमम् । वृषण: । सखाय: । अद्रोघऽअविता । वाचम् । अच्छ । अयम् । अग्नि: । पृतनाषाट् । सुऽवीर: । येन । देवा: । असहन्त । दस्युन् ॥१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
विषय - धूम-सुवीर
पदार्थ -
१. हे (वृषण:) = अपने में शक्ति का सेचन करनेवाले, (सखायः) = परस्पर प्रेम से चलनेवाले लोगो ! तुम (धूमं कृणुत) = ऐसे सन्तान को जन्म दो जो शत्रुओं को कम्पित करनेवाला हो [धूञ् कम्पने], (अद्रोघ अविता) = द्रोहशून्य व रक्षा करनेवाला हो। (वाचम् अच्छ) = वेदवाणी की ओर चलनेवाला हो। उत्तम सन्तान को जन्म देने के लिए आवश्यक है कि हम शक्ति का शरीर में ही सेचन करें तथा परस्पर प्रेम [सखित्व] से वर्ते। इसप्रकार हम नौरोग व निद्वेष होंगे तो हमारी सन्तान भी उत्तम होंगे। २. (अयम्) = यह (सन्तान अग्नि:) = प्रगतिशील होता है, (पृतनाषाट्) = शत्रुसैन्य का मर्षण करनेवाला होता है, (सुवीर:) = उत्तम वीर होता है, (येन) = जिस सन्तान के द्वारा (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (दस्यून् असहन्त) = दस्युओं का पराभव करते हैं, अर्थात् घरों में दास्यव वृत्तियों को नहीं पनपने देते। सन्तान उत्तम हों, तो घर उत्तम बने रहते हैं।
भावार्थ -
हम अपने में शक्ति का सेचन करनेवाले व परस्पर निद्वेषतावाले बनें तो हमारी सन्तान 'शत्रुओं को कम्पित करनेवाली, द्रोहशून्य, रक्षणात्मक वृत्तिवाली, ज्ञानरूचि, प्रगतिशील, शत्रुसैन्यसंहारक व सुवीर' होगी। इन सन्तानों से हमारे घरों में कभी दास्यव वृत्तियों का प्रवेश नहीं होगा।
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