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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 19
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    उ॒रुः प्र॑थस्व मह॒ता म॑हि॒म्ना स॒हस्र॑पृष्ठः सुकृ॒तस्य॑ लो॒के। पि॑ताम॒हाः पि॒तरः॑ प्र॒जोप॒जाऽहं प॒क्ता प॑ञ्चद॒शस्ते॑ अस्मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒रु: । प्र॒थ॒स्व॒ । म॒ह॒ता । म॒हि॒म्ना । स॒हस्र॑ऽपृष्ठ: । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒के । पि॒ता॒म॒हा: । पि॒तर॑: । प्र॒ऽजा । उ॒प॒ऽजा । अ॒हम् । प॒क्ता । प॒ञ्च॒ऽद॒श: । ते॒ । अ॒स्मि॒ ॥१.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उरुः प्रथस्व महता महिम्ना सहस्रपृष्ठः सुकृतस्य लोके। पितामहाः पितरः प्रजोपजाऽहं पक्ता पञ्चदशस्ते अस्मि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उरु: । प्रथस्व । महता । महिम्ना । सहस्रऽपृष्ठ: । सुऽकृतस्य । लोके । पितामहा: । पितर: । प्रऽजा । उपऽजा । अहम् । पक्ता । पञ्चऽदश: । ते । अस्मि ॥१.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 19

    पदार्थ -

    १. हे ब्रह्मौदन-ज्ञान के भोजन! तू (महता महिम्ना) = अपनी महनीय महिमा से हमारे जीवन में (उरु: प्रथस्व) = खूब फैल। (सहस्त्रपृष्ठः) = [पृष्ठ सेचने] तू शतश: सुखों का सेचन करनेवाला हो। । हमें (सुकृतस्य लोके) = पुण्य के लोक में स्थापित कर । २. हमारे वंश में (पितामहा:) = दादा-परदादा आदि (पितर:) = हमारे रक्षक-सात पीढ़ियों के लोग तथा (प्रजा) = हमारे पुत्र (उपजा) = पुत्रों के पुत्र भी सात पीढ़ी तक तथा (पंचदशः अहम्) = इनके बीच में पन्द्रहवाँ मैं (ते पक्ता अस्मि) = हे ब्रह्मौदन! तेरा पकानेवाला हूँ, अर्थात् हमारे वंश में सभी ज्ञान की रुचिवाले हों।

    भावार्थ -

    हमारे वंश में पूर्वज व अवरज सभी वंश में ज्ञान की रुचिवाले हों। यह ज्ञान हमारी महिमा का वर्धक होता है, शतशः सुखों का सेचक होता है तथा सुकृत के लोक में हमें स्थापित करता है।

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