अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - पुरोऽतिजगती विराड्जगती
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
गृ॑हा॒ण ग्रावा॑णौ स॒कृतौ॑ वीर॒ हस्त॒ आ ते॑ दे॒वा य॒ज्ञिया॑ य॒ज्ञम॑गुः। त्रयो॒ वरा॑ यत॒मांस्त्वं वृ॑णी॒षे तास्ते॒ समृ॑द्धीरि॒ह रा॑धयामि ॥
स्वर सहित पद पाठगृ॒हा॒ण । ग्रावा॑णौ । स॒ऽकृतौ॑ । वी॒र॒ । हस्ते॑ । आ । ते॒ । दे॒वा: । य॒ज्ञिया॑: । य॒ज्ञम् । अ॒गु: । त्रय॑: । वरा॑: । य॒त॒मान् । त्वम् । वृ॒णी॒षे । ता: । ते॒ । सम्ऽऋ॑ध्दी: । इ॒ह । रा॒ध॒या॒मि॒ ॥१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
गृहाण ग्रावाणौ सकृतौ वीर हस्त आ ते देवा यज्ञिया यज्ञमगुः। त्रयो वरा यतमांस्त्वं वृणीषे तास्ते समृद्धीरिह राधयामि ॥
स्वर रहित पद पाठगृहाण । ग्रावाणौ । सऽकृतौ । वीर । हस्ते । आ । ते । देवा: । यज्ञिया: । यज्ञम् । अगु: । त्रय: । वरा: । यतमान् । त्वम् । वृणीषे । ता: । ते । सम्ऽऋध्दी: । इह । राधयामि ॥१.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
विषय - त्रयः वराः
पदार्थ -
१. हे (वीर) = वीर्यवन अध्वर्यो! तू (सकृतौ) = [सह-कृती] मिलकर कार्य करनेवाले इन (ग्रावाणी) = ऊखल ब मूसल को (हस्ते गृहाण) = हाथ में ले. अर्थात् यज्ञ के लिए हविद्रव्यों को तैयार करने के लिए सन्नद्ध हो। (ते यज्ञिया: देवा:) = वे यज्ञशील देव-पूजनीय ज्ञानी पुरुष-(यज्ञम् अगु:) = यज्ञ में आएँ और तेरे इस यज्ञ को सम्यक् सम्पन्न करें। २. (त्रयः वरा:) = यजमान से वरयितव्य [प्रार्थनीय] तीन ही पदार्थ हैं। एक तो 'कर्मसमृद्धि', दूसरी उसकी फलभूत 'ऐहिकी समृद्धि' [Prosperity] तथा 'आमुष्मिकी समृद्धि' [मोक्ष]। हे यजमान! (त्वम्) = तु (यतमान् वृणीषे) = जिन वरों को प्रार्थित करता है, (ते) = तेरे लिए (ता: समृद्धी:) = उन समृद्धियों को [कर्मसमृद्धि, ऐहिकी समृद्धि, आमुष्मिकी समृद्धि] (इह) = इस यज्ञ में (राधयामि) = संसिद्ध करता हैं। यह यज्ञ इष्टकामधुक् तो है ही।
भावार्थ -
हम यज्ञसामग्री को सिद्ध करें। ज्ञानी ऋत्विज् हमारे यज्ञों में उपस्थित हों। हमें इन यज्ञों द्वारा कर्मसमृद्धि के साथ ऐहिकी व आमुष्मिकी समृद्धि प्राप्त हो।