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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    त्रे॒धा भा॒गो निहि॑तो॒ यः पु॒रा वो॑ दे॒वानां॑ पितॄ॒णां मर्त्या॑नाम्। अंशा॑ञ्जानीध्वं॒ वि भ॑जामि॒ तान्वो॒ यो दे॒वानां॒ स इ॒मां पा॑रयाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रे॒धा । भा॒ग: । निऽहि॑त: । य: । पु॒रा । व॒: । दे॒वाना॑म् । पि॒तॄ॒णाम् । मर्त्या॑नाम् । अंशा॑न् । जा॒नी॒ध्व॒म् । वि । भ॒जा॒मि॒ । तान् । व॒: । य: । दे॒वाना॑म् । स: । इ॒माम् । पा॒र॒या॒ति॒ ॥१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रेधा भागो निहितो यः पुरा वो देवानां पितॄणां मर्त्यानाम्। अंशाञ्जानीध्वं वि भजामि तान्वो यो देवानां स इमां पारयाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रेधा । भाग: । निऽहित: । य: । पुरा । व: । देवानाम् । पितॄणाम् । मर्त्यानाम् । अंशान् । जानीध्वम् । वि । भजामि । तान् । व: । य: । देवानाम् । स: । इमाम् । पारयाति ॥१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. हे मनुष्यो ! (पुरा) = सृष्टि के प्रारम्भ में ही (य:) = जो (व:) = तुम्हारे लिए (त्रेधा भागः निहित:) = तीन प्रकार से भाग रक्खा गया है, एक तो (देवानाम्) = वायु आदि देवों का, दूसरा (पितृणाम्) = पितरों का तथा तीसरा (मानाम्) = अतिथिरूप मनुष्यों का, (तान् अंशान् जानीध्वम्) = उन अंशों को तुम समझो। मैं उन सब अंशों को (वः विभजामि) = तुम्हारे लिए प्राप्त कराता हूँ। मैं तुम्हें इन सब यज्ञों के लिए आवश्यक धन प्राप्त कराता हूँ। २. इनमें (य:) = जो (देवानाम्) = देवों का भाग है, अर्थात् जो वायु आदि की शुद्धि के लिए देवयज्ञ किया जाता है, (स:) = वह (इमाम् पारयाति) = इस प्रजा को भवसागर से पार करता है-सब कष्टों से मुक्त करता है। नीरोगता का कारण बनकर यह देवयज्ञ प्रजा के जीवन को सुखी करता है।

    भावार्थ -

    प्रभु ने हमें जो धन प्राप्त कराया है वह देवयज्ञ, पितृयज्ञ व अतिथियज्ञ के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए। इनमें देवयज्ञ वायुशुद्धि द्वारा प्रजा को रोग आदि कष्टों से पार करता है।

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