अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - अतिजागतगर्भा परशाक्वरा चतुष्पदा भुरिग्जगती
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
स॒हस्र॑पृष्ठः श॒तधा॑रो॒ अक्षि॑तो ब्रह्मौद॒नो दे॑व॒यानः॑ स्व॒र्गः। अ॒मूंस्त॒ आ द॑धामि प्र॒जया॑ रेषयैनान्बलिहा॒राय॑ मृडता॒न्मह्य॑मे॒व ॥
स्वर सहित पद पाठस॒हस्र॑ऽपृष्ठ: । श॒तऽधा॑र: । अक्षि॑त: । ब्र॒ह्म॒ऽओ॒द॒न: । दे॒व॒ऽयान॑: । स्व॒:ऽग: । अ॒मून् । ते॒ । आ । द॒धा॒मि॒ । प्र॒ऽजया॑ । रे॒ष॒य॒ । ए॒ना॒न् । ब॒लि॒ऽहा॒राय॑ । मृ॒ड॒ता॒त् । मह्य॑म् । ए॒व ॥१.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रपृष्ठः शतधारो अक्षितो ब्रह्मौदनो देवयानः स्वर्गः। अमूंस्त आ दधामि प्रजया रेषयैनान्बलिहाराय मृडतान्मह्यमेव ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽपृष्ठ: । शतऽधार: । अक्षित: । ब्रह्मऽओदन: । देवऽयान: । स्व:ऽग: । अमून् । ते । आ । दधामि । प्रऽजया । रेषय । एनान् । बलिऽहाराय । मृडतात् । मह्यम् । एव ॥१.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 20
विषय - ब्रह्मौदन: देवयानः
पदार्थ -
१. (ब्रह्मौदन:) = यह ज्ञान का भोजन (सहस्त्रपृष्ठः) = सहस्रों सुखों का सेचन करनेवाला है। (शतधार:) = शत-वर्षपर्यन्त-आजीवन हमारा धारण करनेवाला है। (अ-क्षित:) = [न क्षितं यस्मात्] इससे कभी हमारा विनाश नहीं होता। (देवयान:) = यह देव की प्राप्ति का मार्ग है। (स्वर्ग:) = जीवन को सुखमय व प्रकाशमय बनानेवाला है। २. हे ब्रह्मौदन ! मैं (अमून) = उन अपने शत्रुओं को (ते आदधामि) = तेरी अधीनता में स्थापित करता हूँ। वस्तुत: ज्ञानरुचिता होने पर ये काम-क्रोध आदि शत्रु अपने आप ही नष्ट हो जाते हैं। (प्रजया) = मेरी शक्तियों के विकास के हेतु से (एनान् रेषय) = इन शत्रुओं को नष्ट कर डालिए। (मह्यम्)= मुझ (बलिहाराय) = बलि प्राप्त करानेवाले के लिए बलिवैश्वदेवादि यज्ञों को करनेवाले के लिए यह ब्रह्मौदन (मृडतात् एव) = अनुग्रह ही करनेवाला हो। ज्ञान के द्वारा मेरा जीवन सुखी हो।
भावार्थ -
ज्ञान हमारे जीवनों को आनन्दमय बनाता हुआ हमें प्रभु की ओर ले-चलता है। यह जीवन को प्रकाशमय बना देता है। यह ज्ञान हमारे शत्रुओं को नष्ट करे, हमारे विकास के लिए इन कामादि शत्रुओं का विनाश आवश्यक है।
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