अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - विराड्गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
इ॒यं म॒ही प्रति॑ गृह्णातु॒ चर्म॑ पृथि॒वी दे॒वी सु॑मन॒स्यमा॑ना। अथ॑ गच्छेम सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । म॒ही । प्रति॑ । गृ॒ह्णा॒तु॒ । चर्म॑ । पृ॒थि॒वी । दे॒वी । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना । अथ॑ । ग॒च्छे॒म॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् ॥१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं मही प्रति गृह्णातु चर्म पृथिवी देवी सुमनस्यमाना। अथ गच्छेम सुकृतस्य लोकम् ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । मही । प्रति । गृह्णातु । चर्म । पृथिवी । देवी । सुऽमनस्यमाना । अथ । गच्छेम । सुऽकृतस्य । लोकम् ॥१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
विषय - यज्ञ व स्वर्गलोक
पदार्थ -
१. (इयम्) = यह पुरोवर्तिनी (मही) = देवयजनभूमि (चर्म) = आस्तीर्यमाण अजिन को (प्रतिगृह्णातु) = स्वीकार करे। हम इस देवयजनभूमि पर मृगचर्म बिछाकर प्रभु के ध्यान व यज्ञ में प्रवृत्त हों। देवी (पृथिवी) = यह देवतारूप पृथिवी (सुमनस्यमाना) = मन को शोभन करती हुई अनुग्रह बुद्धियुक्त हो। इसपर किये जानेवाले ध्यान व यज्ञ हमें शुभ मनवाला बनाएँ। २. (अथ) = अब ध्यान, यज्ञ आदि द्वारा शुभ मनवाले होते हुए हम (सुकृतस्य लोकं गच्छेम) = पुण्य के लोक को प्राप्त हों। हमारा यह लोक पुण्यों का लोक बने।
भावार्थ -
इस पृथिवी पर ध्यान व यज्ञादि उत्तम कर्मों को करते हुए हम शुभ लोक को प्राप्त करें।
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