अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
इ॒दं मे॒ ज्योति॑र॒मृतं॒ हिर॑ण्यं प॒क्वं क्षेत्रा॑त्काम॒दुघा॑ म ए॒षा। इ॒दं धनं॒ नि द॑धे ब्राह्म॒णेषु॑ कृ॒ण्वे पन्थां॑ पि॒तृषु॒ यः स्व॒र्गः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । मे॒ । ज्योति॑: । अ॒मृत॑म् । हिर॑ण्यम् । प॒क्वम् । क्षेत्रा॑त् । का॒म॒ऽदुघा॑ । मे॒ । ए॒षा । इ॒दम् । धन॑म् । नि । द॒धे॒ । ब्रा॒ह्म॒णेषु॑ । कृ॒ण्वे । पन्था॑म् । पि॒तृषु॑ । य: । स्व॒:ऽग: ॥१.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं मे ज्योतिरमृतं हिरण्यं पक्वं क्षेत्रात्कामदुघा म एषा। इदं धनं नि दधे ब्राह्मणेषु कृण्वे पन्थां पितृषु यः स्वर्गः ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । मे । ज्योति: । अमृतम् । हिरण्यम् । पक्वम् । क्षेत्रात् । कामऽदुघा । मे । एषा । इदम् । धनम् । नि । दधे । ब्राह्मणेषु । कृण्वे । पन्थाम् । पितृषु । य: । स्व:ऽग: ॥१.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 28
विषय - स्वर्ग: पन्थाः
पदार्थ -
१. (इदं) = मे (ज्योति:) = यह मेरा ज्ञान का प्रकाश है, अर्थात् मैं ज्ञान से जीवन को ज्योतिर्मय करने के लिए यत्नशील होता है। (अमृतम्) = यह नीरोगता है, (हिरण्यम्) = यह शरीर में सुरक्षित हितरमणीय वीर्यशक्ति है। (क्षेत्रात् पक्वम्) = खेतों में जिसका परिपाक हुआ है, वह वानस्पतिक भोज्य पदार्थ है। (मे) = मेरी (एषा) = यह (कामदुघा) = खूब ही दूध देनेवाली गौ है। २. (इदं धनम्) = इस धन को (ब्राह्मणेषु निदधे) = मैं ज्ञानियों में स्थापित करता हूँ, अर्थात् ज्ञानियों के लिए आवश्यक धनों को प्राप्त कराता हुआ 'अतिथियज्ञ' करता हूँ। मैं (पितृषु पन्थां कृण्वे) = पितरों में अपने मार्ग को बनाता है, अर्थात् मैं भी पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त होता हूँ। यह मार्ग वह है (यः) = जोकि (स्वर्ग:) = सुख व प्रकाश की ओर जानेवाला है।
भावार्थ -
स्वर्ग का मार्ग यह है कि [क] हम ज्ञान का संचय करें, [ख] नीरोग बनें, [ग] वीर्यरक्षण करनेवाले हों [घ] वानस्पतिक भोजन करें, [ङ] घर में कामदुमा धेनु रक्खें, [च] ज्ञानियों को लोकहित के कार्यों के लिए धन दें, [छ] पालनात्मक प्रवृत्तिवाले बनें।
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