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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 30
    ऋषिः - नृमेधपुरुषमेधावृषी देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः
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    बृ॒हदिन्द्रा॑य गायत॒ मरु॑तो वृत्र॒हन्त॑मम्। येन॒ ज्योति॒रज॑नयन्नृता॒वृधो॑ दे॒वं दे॒वाय॒ जागृ॑वि॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒हत्। इन्द्रा॑य। गा॒य॒त॒। मरु॑तः। वृ॒त्र॒हन्त॑म॒मिति॑ वृत्र॒हन्ऽत॑मम्। येन॑। ज्योतिः॑। अज॑नयन्। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। दे॒वम्। दे॒वाय॑। जागृ॑वि ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहदिन्द्राय गायत मरुतो वृत्रहन्तमम् । येन ज्योतिरजनयन्नृतावृधो देवन्देवाय जागृवि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    बृहत्। इन्द्राय। गायत। मरुतः। वृत्रहन्तममिति वृत्रहन्ऽतमम्। येन। ज्योतिः। अजनयन्। ऋतावृधः। ऋतवृध इत्यृतऽवृधः। देवम्। देवाय। जागृवि॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 30
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    भावार्थ -
    हे (मरुतः) विद्वान् वायु के समान वेगवान् वीर पुरुषो ! हे शत्रुओं को मारने हारो ! आप लोग ( वृत्रहन्तमम् ) नगर को रोक लेने वाले शत्रु को मारने वालों में सबसे श्रेष्ठ (बृहत् ) महान् शक्तिमान् राष्ट्र के उस अधिकार का (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् राजा को (गायत) उपदेश करो (येन) जिससे ( ऋतावृधः) सत्य ज्ञान और न्याय व्यवहार की वृद्धि करने वाले (देवाय) देव, दानशील राजा के (जागृवि) सदा जागने वाले, सदा सावधान, ( देवम् ) सर्वविजयकारी, ( ज्योतिः ) तेज को ( अजनयन् ) उत्पन्न करते हैं, प्रकट करते हैं । विद्वान्गण, विघ्ननाशक इन्द्र प्रभु का गायन करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नृमेधपुरुमेधावृषी । इन्द्रो देवता । बृहती । मध्यमः ॥

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