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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 68
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यम॒श्विना॒ सर॑स्वती ह॒विषेन्द्र॒मव॑र्द्धयन्।स बि॑भेद व॒लं म॒घं नमु॑चावासु॒रे सचा॑॥६८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम्। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। ह॒विषा॑। इन्द्र॑म्। अव॑र्द्धयन्। सः। बि॒भे॒द॒। ब॒लम्। म॒घम्। नमु॑चौ। आ॒सु॒रे। सचा॑ ॥६८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमश्विना सरस्वती हविषेन्द्रमवर्धयन् । स बिधेद वलम्मघन्नमुचावासुरे सचा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। अश्विना। सरस्वती। हविषा। इन्द्रम्। अवर्द्धयन्। सः। बिभेद। बलम्। मघम्। नमुचौ। आसुरे। सचा॥६८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 68
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    भावार्थ -
    ( अश्विना, सरस्वती) दोनों प्रकार के वैद्य और विदुषी माता जिस प्रकार पुत्र को (हविषा ) अन्न से (अवर्धयन् ) पुष्ट करते हैं (आसुरे नमुचौ ) प्राणों में रमण करनेवाले आत्मा में (मघं बलं विभेद) अति उत्तम बल प्राप्त करता है उसी प्रकार (अश्विनौ सरस्वती) उत्तम पदों को प्राप्त होकर अश्विजन और विद्वत्सभा तीनों मिलकर (हविषा ) अन्नादि समृद्धि और उत्तम उपाय से ( यम् इन्द्रम् ) जिस शत्रुनाश करनेवाले पुरुष को ( अवर्धयन् ) बढ़ाते हैं (सः) वह ही (आसुरे नमुचौ ) असुर स्वभाव के नमुचि अर्थात् उपेक्षा न करने योग्य शत्रु के पास ( सचा ) विद्यमान (मघम् ) ऐश्वर्य को (बिभेद) उससे छीन लेता है और ( बलम् ) उसके बल, सेना-बल और यन्त्र- बल को ( बिभेद ) तोड़ डालता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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