यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 69
ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः
देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
तमिन्द्रं॑ प॒शवः॒ सचा॒श्विनो॒भा सर॑स्वती।दधा॑ना अ॒भ्यनूषत ह॒विषा॑ य॒ज्ञऽइ॑न्द्रि॒यैः॥६९॥
स्वर सहित पद पाठतम्। इन्द्र॑म्। प॒श॑वः। सचा॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। सर॑स्वती। दधा॑नाः। अ॒भि। अ॒नू॒ष॒त॒। ह॒विषा॑। य॒ज्ञे। इ॒न्द्रि॒यैः ॥६९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्रम्पशवः सचाश्विनोभा सरस्वती । दधानाऽअभ्यनूषत हविषा यज्ञ इन्द्रियैः ॥
स्वर रहित पद पाठ
तम्। इन्द्रम्। पशवः। सचा। अश्विना। उभा। सरस्वती। दधानाः। अभि। अनूषत। हविषा। यज्ञे। इन्द्रियैः॥६९॥
विषय - उषा, नक्त, अश्वि, तीन देवियां, सविता, वरुण का इन्द्र पद को पुष्ट करना ।
भावार्थ -
( पशवः) नाना पशु सम्पत्तियाँ, अथवा दूरदर्शी पुरुष (सचा उभा अश्विना) परस्पर संयुक्त दोनों मुख्य पदाधिकारी और (सरस्वती) सरस्वती, विद्वत्सभा (तम् इन्द्रम् ) उस ऐश्वर्यवान्, शत्रुनाशक, राष्ट्र और राष्ट्रपति को ( दधानाः ) धारण करते हुए (यज्ञे) प्रजापालनरूप यज्ञ में ( हविषा ) अन्नादि सामग्री और (इन्द्रियैः) ऐश्वर्यों और राजकीय बलों से (अभि अनूषत) सब प्रकार से बढ़ाते उसकी प्रशंसा करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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