यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 56
ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः
देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
त॒नू॒पा भि॒षजा॑ सु॒तेऽश्विनो॒भा सर॑स्वती।मध्वा॒ रजा॑सीन्द्रि॒यमिन्द्रा॑य प॒थिभि॑र्वहान्॥५६॥
स्वर सहित पद पाठत॒नू॒पेति॑ तनू॒ऽपा। भि॒षजा॑। सु॒ते। अ॒श्विना॑। उ॒भा। सर॑स्वती। मध्वा॑। रजा॑सि। इ॒न्द्रि॒यम्। इन्द्रा॑य। प॒थिभि॒रिति॑ प॒थिऽभिः॑। व॒हा॒न् ॥५६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तनूपा भिषजा सुते स्विनोभा सरस्वती । अध्वा रजाँँसीन्द्रियमिन्द्राय पथिभिर्वहान् ॥
स्वर रहित पद पाठ
तनूपेति तनूऽपा। भिषजा। सुते। अश्विना। उभा। सरस्वती। मध्वा। रजासि। इन्द्रियम्। इन्द्राय। पथिभिरिति पथिऽभिः। वहान्॥५६॥
विषय - सरस्वती और अश्वियों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
( तनूपा ) शरीर की रक्षा करने वाले, (भिषजा) सर्वं रोग निवारक वैद्य के समान राष्ट्र के रक्षक, ( उभे अश्विना) दोनों अश्व युक्त, सेना के पति, राजा, मन्त्री या राजा, स्त्री-पुरुष गण और (सरस्वती) वेद वाणी के समान ज्ञान से पूर्ण विद्वत्सभा ये सब (मध्वा) मधुर अन्न, ज्ञान और बल से (रजांसि) समस्त लोक और ( इन्द्रियम् ) राजोचित ऐश्वर्यं का, (पथिभिः) नाना सत्-उपायों और मार्गों से (इन्द्राय) परम ऐश्वर्यवान् राजा के लिये (बहान् ) प्राप्त करावें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विराड अनुष्टुप् । गांधारः ॥
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