यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 67
ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः
देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
अ॒श्विना॑ ह॒विरि॑न्द्रि॒यं नमु॑चेर्धि॒या सर॑स्वती।आ शु॒क्रमा॑सु॒राद्वसु॑ म॒घमिन्द्रा॒॑य जभ्रिरे॥६७॥
स्वर सहित पद पाठअ॒श्विना॑। ह॒विः। इ॒न्द्रि॒यम्। नमु॑चेः। धि॒या। सर॑स्वती। आ। शु॒क्रम्। आ॒सु॒रात्। वसु॑। म॒घम्। इन्द्रा॑य। ज॒भ्रि॒रे॒ ॥६७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्विना हविरिन्द्रियन्नमुचेर्धिया सरस्वती । आ शुक्रमासुराद्वसु मघमिन्द्राय जभ्रिरे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अश्विना। हविः। इन्द्रियम्। नमुचेः। धिया। सरस्वती। आ। शुक्रम्। आसुरात्। वसु। मघम्। इन्द्राय। जभ्रिरे॥६७॥
विषय - उषा, नक्त, अश्वि, तीन देवियां, सविता, वरुण का इन्द्र पद को पुष्ट करना ।
भावार्थ -
( अश्विनौ) पूर्वोक्त दो अधिकारी जन और(सरस्वती) विद्वसभा (धिया) बुद्धिपूर्वक और राष्ट्र के धारण करनेवाली शक्ति से ( नमुचेः) कभी न छोड़ने योग्य, सदा वध कर देने योग्य शत्रु से अथवा शत्रु के हाथ कभी न देने योग्य राष्ट्र से ( इन्द्राय ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुनाशक राजा के लिये (हविः) अन्न समृद्धि या स्वीकार करने योग्य (इन्द्रियम् ) ऐश्वर्य या इन्द्रपद और (शुक्रम् ) शुद्ध तेजोमय (वसु) प्रजा को बसानेवाला राष्ट्र और (मघम् ) ऐश्वर्य सम्पत्ति इन पदार्थों को (आजभ्रिरे) प्राप्त कराते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - [ ६७–६९ ] अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः । भुरिग् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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