यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सभोशो देवता
छन्दः - भुरिगुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
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निष॑साद धृ॒तव्र॑तो॒ वरु॑णः प॒स्त्यास्वा। साम्रा॑ज्याय सु॒क्रतुः॑। मृ॒त्योः पा॑हि वि॒द्योत् पा॑हि॥२॥
स्वर सहित पद पाठनि। स॒सा॒द॒। धृ॒तव्र॑त॒ इति॑ धृ॒तऽव्र॑तः। वरु॑णः। प॒स्त्या᳕सु। आ। साम्रा॑ज्या॒येति॒ साम्ऽरा॑ज्याय। सु॒क्रतु॒रिति॑ सु॒ऽक्रतुः॑। मृ॒त्योः। पा॒हि॒। वि॒द्योत्। पा॒हि॒ ॥२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
निषसाद घृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा । साम्राज्याय सुक्रतुः । मृत्योः पाहि विद्योत्पाहि॥
स्वर रहित पद पाठ
नि। ससाद। धृतव्रत इति धृतऽव्रतः। वरुणः। पस्त्यासु। आ। साम्राज्यायेति साम्ऽराज्याय। सुक्रतुरिति सुऽक्रतुः। मृत्योः। पाहि। विद्योत्। पाहि॥२॥
विषय - सर्वश्रेष्ठ पुरुष का सिंहासन पर विराजना और उसको प्रजापालन के कर्त्तव्योपदेश ।
भावार्थ -
( धृतव्रतः) व्रतों, नियमों को धारण करने वाला, (सु-क्रतुः ) उत्तम प्रज्ञावान्, कर्म कुशल पुरुष (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ, प्रजा के कष्टों को वारण करनेहारा (पस्त्यासु ) न्यायगृहों, या प्रजाओं के बीच, (आ निससाद) साक्षात् विराजे । हे राजन् ! तू ( मृत्योः ) प्रजा को मृत्यु कारणों से (पाहि) बचा । (विद्योत् ) विद्युत् के समान अग्नि आदि के बने अस्त्रों से ( पाहि ) बचा । अर्थात् राजा प्रजा की अकारण, एवं अकाल मृत्यु और शत्रु के आक्रमणों से रक्षा करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिः । सभेशः । भुरिग् उष्णिक । ऋषभः ॥
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