यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 53
ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
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आ म॒न्द्रैरि॑न्द्र॒ हरि॑भिर्या॒हि म॒यूर॑रोमभिः। मा त्वा॒ के चि॒न्नि य॑म॒न् विं न पा॒शिनोऽति॒ धन्वे॑व॒ ताँ२ऽइ॑हि॥५३॥
स्वर सहित पद पाठआ। म॒न्द्रैः। इ॒न्द्र॒। हरि॑भि॒रिति॒ हरि॑ऽभिः। या॒हि। म॒यूर॑रोमभि॒रिति॑ म॒यूर॑रोमऽभिः। मा। त्वा॒। के। चि॒त्। नि। य॒म॒न्। विम्। न। पा॒शिनः॑। अ॒ति॒धन्वे॒वेत्य॑ति॒धन्व॑ऽइव। तान्। इ॒हि॒ ॥५३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आऽमन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः । मा त्वा केचिन्नियमन्विन्ना पाशिनो ति धन्वेव ताँऽइहि ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। मन्द्रैः। इन्द्र। हरिभिरिति हरिऽभिः। याहि। मयूररोमभिरिति मयूररोमऽभिः। मा। त्वा। के। चित्। नि। यमन्। विम्। न। पाशिनः। अतिधन्वेवेत्यतिधन्वऽइव। तान्। इहि॥५३॥
विषय - इन्द्र सुत्रामा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) इन्द्र ! राजन् ! तू (मयूररोमभिः) मोर के पंखों के समान नील वर्ण के लोमों वाले (मन्दैः) अति उत्तम (हरिभिः) अश्वों अथवा मोर के पंखों से सजे शत्रुसंहारक सेनानायकों सहित (आयाहि ) प्राप्त हो । (पाशिन: विं न) फन्दा लगाने वाले शिकारी जिस प्रकार पक्षी को फांस लेते हैं उसी प्रकार (वा) तुझको ( केचित् ) कोई भी ( मा नियमन् ) न बांध लें | तू ( तान् ) उन दुष्ट बन्धनों को भी (अतिधन्वा इव) बड़े धनुर्धर के समान (अति) वीरता से पार करके (आ इहि) प्राप्त हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः । इन्द्रो देवता । निचृद् बृहती । मध्यमः ॥
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