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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 36
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    समि॑द्ध॒ऽइन्द्र॑ऽउ॒षसा॒मनी॑के पुरो॒रुचा॑ पूर्व॒कृद्वा॑वृधा॒नः। त्रि॒भिर्दे॒वैस्त्रि॒ꣳशता॒ वज्र॑बाहुर्ज॒घान॑ वृ॒त्रं वि दुरो॑ ववार॥३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    समि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धः। इन्द्रः॑। उ॒षसा॑म्। अनी॑के। पु॒रो॒रुचेति॑ पुरः॒ऽरुचा॑। पू॒र्व॒कृदिति॑ पूर्व॒ऽकृत्। व॒वृ॒धा॒नऽइति॑ ववृधा॒नः। त्रि॒भिरिति॑ त्रि॒ऽभिः। दे॒वैः। त्रि॒ꣳशता॑। वज्र॑बाहुरिति॒ वज्र॑ऽबाहुः। ज॒घान॑। वृ॒त्रम्। वि। दुरः॑। व॒वा॒र॒ ॥३६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिद्धऽइन्द्रऽउषसामनीके पुरोरुचा पूर्वकृद्वावृधानः । त्रिभिर्देवैस्त्रिँशता वज्रबाहुर्जघान वृत्रँवि दुरो ववार ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समिद्ध इति सम्ऽइद्धः। इन्द्रः। उषसाम्। अनीके। पुरोरुचेति पुरःऽरुचा। पूर्वकृदिति पूर्वऽकृत्। ववृधानऽइति ववृधानः। त्रिभिरिति त्रिऽभिः। देवैः। त्रिꣳशता। वज्रबाहुरिति वज्रऽबाहुः। जघान। वृत्रम्। वि। दुरः। ववार॥३६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 36
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    भावार्थ -
    (समिद्धः) अति प्रदीप्त, अति तेजस्वी, (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् सूर्य जिस प्रकार ( उपसाम् अनीके) उपाओं या प्रभात काल के मुख मैं (पुरोरुचा) अपने आगे चलने वाली अति दीप्ति से ( पूर्वकृतम् ) पूर्व विद्यमान अन्धकार को नाश करता हुआ आगे बढ़ता है उसी प्रकार (समिद्धः)सूर्य के समान तेजस्वी, (इन्द्रः) शत्रुओं का नाशक इन्द्र, सेनापति ( उपसाम् ) शत्रु के गढ़ों को जलाने हारे, या शत्रु सेनाओं को अपने- आग्नेयास्त्रों से जलाने वाले सैन्यों के या (उपसाम्) स्वयं दाहकारी आयुधों के (अनीके) सेनासमूह के, अग्रभाग में, (पुरोरुचा) आगे-आगे फैलने वाली दीप्ति से या दीप्तिमान् शक्ति से ( पूर्वकृत् ) पूर्व ही शत्रु पर आक्रमण: करने हारा होकर, या पूर्ण बलवान् शत्रु का नाशक होकर स्वयं (वावृ- धानः ) वृद्धि को प्राप्त होता हुआ (वज्रबाहुः) खड्ग को हाथ में लिये, बलवान्, दण्डधर राजा, (त्रिभि: त्रिंशता देवैः ) तैंतीस देवों अर्थात् राष्ट्र के निमित्त विजय करने वाले कुशल पुरुषों के साथ मिलकर (वृत्रं जघान ). आवरणकारी शत्रु का नाश करे । और (दुरः) शत्रु दुर्ग के द्वारों को (विववार) विविध रूप से खोल दे । आत्मा के पक्ष में- इन्द्र, आत्मा। योग द्वारा तेजस्वी होकर अज्ञाननाशक, ध्यान योग से प्रकट ज्योतिष्मती: प्रज्ञाओं के प्रारम्भ में स्वयं उग्र दीप्ति से अन्धकार को नाश करे आवरणकारी तम और अन्धकारी देहबन्धन का नाश करे और द्वारों को खोल दे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इन्द्रो देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः । आंगिरस ऋषिः ॥

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