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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 66
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    गोभि॒र्न सोम॑मश्विना॒ मास॑रेण परि॒स्रुता॑।सम॑धात॒ꣳ सर॑स्वत्या॒ स्वाहेन्द्रे॑ सु॒तं मधु॑॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गोभिः॑। न। सोम॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। मास॑रेण। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। सम्। अ॒धा॒त॒म्। सर॑स्वत्या। स्वाहा॑। इन्द्रे॑। सु॒तम्। मधु॑ ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गोभिर्न सोममश्विना मासरेण परिस्रुता । समधातँ सरस्वत्या स्वाहेन्द्रे सुतम्मधु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गोभिः। न। सोमम्। अश्विना। मासरेण। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। सम्। अधातम्। सरस्वत्या। स्वाहा। इन्द्रे। सुतम्। मधु॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 66
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    भावार्थ -
    हे ( अश्विनौ ) अश्विगणो ! दो मुख्य अधिकारीजनो ! आप लोग (सरस्वत्या) सरस्वती नामक विद्वत्समिति के साथ मिलकर (गोभिः) पशुओं से और ( परिस्रता ) अभिषेक द्वारा प्राप्त सब दिशाओं की लक्ष्मी और (मासरेण) प्रति मास देने योग्य वेतन के नियम से ( स्वाहा ) उत्तम राज्य की नीति से (इन्द्रे) ऐश्वर्यवान् राष्ट्र में ( मधु सुतम् ) मधुर, सर्वप्रिय अभिषिक्त पुरुष को (सम अधातम् ) स्थापित करो। अथवा- (इन्द्रे) ऐश्वर्यवान् पुरुष में (मधु ) मधुर, आनन्दजनक ( सुतम् ) ऐश्वर्य युक्त राष्ट्र की (सम अधातम् ) अच्छी प्रकार स्थापना करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृद् ।अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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