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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 59
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒श्विना॒ नमु॑चेः सु॒तꣳ सोम॑ꣳ शु॒क्रं प॑रि॒स्रुता॑। सर॑स्वती॒ तमाभ॑रद् ब॒र्हिषेन्द्रा॑य॒ पात॑वे॥५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्विना॑। नमु॑चेः। सु॒तम्। सोम॑म्। शु॒क्रम्। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। सर॑स्वती। तम्। आ। अ॒भ॒र॒त्। ब॒र्हिषा॑। इन्द्रा॑य। पात॑वे ॥५९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना नमुचेः सुतँ सोमँ शुक्रम्परिस्रुता । सरस्वती तामाभरद्बर्हिषेन्द्राय पातवे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना। नमुचेः। सुतम्। सोमम्। शुक्रम्। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। सरस्वती। तम्। आ। अभरत्। बर्हिषा। इन्द्राय। पातवे॥५९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 59
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    भावार्थ -
    ( अश्विनौ ) नाना विद्याओं में कुशल राष्ट्र के स्त्री पुरुष अथवा वसन्त और ग्रीष्म के समान सौम्य और प्रचण्ड अधिकारी, सन्धि और विग्रह के कर्त्ता अधिकारीगण, ( नमुचेः) न छोड़ने योग्य शत्रु से ही प्राप्त करके (परिस्रुता) अभिषेक क्रिया द्वारा (सुतम् ) अभिषिक्त (शुक्रम्) शुद्ध किये गये ( सोमम् ) राज्य को प्राप्त करते हैं । (सरस्वती) विद्वत्सभा भी (तम् ) उसको (बर्हिषे) बड़े भारी सामर्थ्यं या प्रजा के लिये (इन्द्राय ) ऐश्वर्यवान् शासक के (पातवे) भोग के लिये (आभरत् ) प्रस्तुत करती है । 'अश्विनौ' - अथ यदेनं (अग्निम् ) द्वाभ्यां बाहुभ्यां द्वाभ्यां अरणीभ्यां मन्थन्ति द्वौ वा अश्विनौ तदस्याश्विनं रूपम् ॥ ऐ० ३ । ४ ॥ मुख्यौ वा अश्विनौ यज्ञस्य । श० ४।१।५।१७॥ वसन्तग्रीष्मावेवाश्विनाभ्यामवरुन्धे । श० १२ । २।२।३४॥ गृहस्थपक्ष में- स्त्री पुरुष, ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी ( नमुचेः) अत्याज्य, अखण्ड ब्रह्मचर्य से प्राप्त जिस ( सोमन) वीर्य को सम्पादित करते हैं उसको (सरस्वती) उत्तम स्त्री (बहिषा) सन्तति रूप से (इन्द्राय पातवे ) अपने सौभाग्य के भोग के लिये अपने भीतर (आभरत् ) धारण करती है । अर्थात् वीर्याधान द्वारा पुरुष को सुख और सन्तति दोनों प्राप्त होते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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