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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 78
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - जगती स्वरः - निषादः
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    यस्मि॒न्नश्वा॑सऽऋष॒भास॑ऽउ॒क्षणो॑ व॒शा मे॒षाऽअ॑वसृ॒ष्टास॒ऽआहु॑ताः।की॒ला॒ल॒पे सोम॑पृष्ठाय वे॒धसे॑ हृ॒दा म॒तिं ज॑नय॒ चारु॑म॒ग्नये॑॥७८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मि॑न्। अश्वा॑सः। ऋ॒ष॒भासः॑। उ॒क्षणः॑। व॒शाः। मे॒षाः। अ॒व॒सृ॒ष्टास॒ इत्य॑वऽसृ॒ष्टासः॑। आहु॑ता॒ इत्याऽहु॑ताः। की॒ला॒ल॒प इति॑ कीलाल॒ऽपे। सोम॑पृष्ठा॒येति॒ सोम॑ऽपृष्ठाय। वे॒धसे॑। हृ॒दा। म॒तिम्। ज॒न॒य॒। चारु॑म्। अ॒ग्नये॑ ॥७८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मिन्नश्वासऽऋषभासऽउक्षणो वशा मेषाऽअवसृष्टासऽआहुताः । कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदा मतिञ्जनये चारुमग्नये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मिन्। अश्वासः। ऋषभासः। उक्षणः। वशाः। मेषाः। अवसृष्टास इत्यवऽसृष्टासः। आहुता इत्याऽहुताः। कीलालप इति कीलालऽपे। सोमपृष्ठायेति सोमऽपृष्ठाय। वेधसे। हृदा। मतिम्। जनय। चारुम्। अग्नये॥७८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 78
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    भावार्थ -
    ( यस्मिन् ) जिसके अधीन (अश्वासः) अश्ववत् वेगवान् अश्वारोही जन, (ऋषभासः) श्रेष्ठजन, एवं महावृषभ के समान परोपकारी, (उक्षाणः) सेचन वा कार्यभार उठाने में समर्थ युवा पुरुष, (वशाः) इन्द्रियों और देशों पर वश करने में समर्थ वशी, तपस्वी, तेजस्वी लोग, (मेषाः) शत्रुओं से स्पर्द्धापूर्वक लड़ने वाले योद्धा लोग (आहुताः) आदरपूर्वक बुला-बुला कर (अवसृष्टासः) उनके अधीनस्थ अधिकारी बनाये गये हैं उस (कीलालपे) शत्रु छेदन में समर्थ बल की रक्षा करने वाले (सोमपृष्ठाय ) राष्ट्र और राजपद के पालक एवं उसको अपने पर लेने वाले ( वेधसे) बुद्धिमान्, महापुरुष (अग्नये ) ज्ञानवान् सर्व नेता पुरुष के लिये (हृदा) हृदय से ( चारुम् ) श्रेष्ठ ( मतिम् ) मान आदर ( जनय) करो । ईश्वर में 'अश्व' तीव्र वेगवान् सूर्य विद्युत् आदि पदार्थ, मेघवत् (उक्षाणः) नद, जल वर्षक, पृथिवी, (मेष) सूर्य ये सब उत्पन्न होते और प्रलय काल में फिर लीन हो जाते हैं । उस कीलालप स्वतः उच्छेद्य संसार के रक्षक अथवा कीलाल- अमृत के रक्षक (सोम) संसार के पालक, जगत् के विधाता ज्ञानवान् स्वप्रकाश, परमेश्वर के लिये हृदय से उत्तम स्तुति क़र । उवट और महीधर दोनों ने इस मन्त्र का अर्थ किया है,....' जिस अग्नि में घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायें और मेंढे काट-काट कर डाल दिये और पकड़-पकड़ कर ला ला कर झोंक दिये उस अग्नि के लिए उत्तम शुद्ध चित्त रख ।' विद्वान् के पक्ष में – जिस पुरुष के अधीन घोड़े, बैल, सांड, बांझ गौएं और मैंढे भी ( आहुताः ) पकड़-पकड़ कर लाये गये और ( अवसृष्टासः ) सधा लिये जाते, अधीन रहकर नाना चर्मों में नियुक्त करने योग्य बना लिये जाते हैं, उस ( कीलालपे ) उत्तम अन्नाहारी यां अन्नरक्षक (सोमपृष्टाय ) सौम्य गुण के पोषक (अग्नये ) विद्वान् के लिये हृदय से उत्तम विचार रक्खो । अर्थात् पशुओं के सधाने वाले लोगों को भी तुच्छ दृष्टि से न देखो । म० दया० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - [ ७८, ७९ ] अग्निर्देवता । जगती । निषादः ॥

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