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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 43
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - तिस्रा देव्यो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    ति॒स्रो दे॒वीर्ह॒विषा॒ वर्द्ध॑माना॒ऽइन्द्रं॑ जुषा॒णा जन॑यो॒ न पत्नीः॑। अ॑च्छिन्नं॒ तन्तुं॒ पय॑सा॒ सर॑स्व॒तीडा॑ दे॒वी भार॑ती वि॒श्वतू॑र्त्तिः॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒स्रः। दे॒वीः। ह॒विषा॑। वर्द्ध॑मानाः। इन्द्र॑म्। जु॒षा॒णाः। जन॑यः। न। पत्नीः॑। अच्छि॑न्नम्। तन्तु॑म्। पय॑सा। सर॑स्वती। इडा॑। दे॒वी। भार॑ती। वि॒श्वतू॑र्त्ति॒रिति॑ वि॒श्वऽतू॑र्त्तिः ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिस्रो देवीर्हविषा वर्धमाना इन्द्रञ्जुषाणा जनयो न पत्नीः । अच्छिन्नन्तन्तुम्पयसा सरस्वतीडा देवी भारती विश्वतूर्तिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तिस्रः। देवीः। हविषा। वर्द्धमानाः। इन्द्रम्। जुषाणाः। जनयः। न। पत्नीः। अच्छिन्नम्। तन्तुम्। पयसा। सरस्वती। इडा। देवी। भारती। विश्वतूर्त्तिरिति विश्वऽतूर्त्तिः॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 43
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    भावार्थ -
    (सरस्वती) सरस्वती, विद्वत्-सभा या विद्वान् जन ! ( इडा ) इडा, धर्मसभा और (देवी) विजयशालिनी, (भारती) धारण पोषणकर्त्री, प्रबन्धक सभा, (विश्वतिः) समस्त कार्यों के बिना विलम्ब के अति- शीघ्रता से करने में समर्थ (तिस्रः) तीनों (देवीः) दिव्य गुण वाली, एवं 'विद्वान् सदस्यों से बनीं सभाएं (हविषा ) अन्नादि ऐश्वर्य, ज्ञान और बल से (वर्धमानाः) बढ़ती हुई ( जनयः पत्नीः न) पुत्रोत्पादन करने वाली पत्नियों के समान, ( इन्द्रम् ) अपने ऐश्वर्यशील स्वामी राजा या राज्य कार्य को (जुषाणाः) प्राप्त करके ( पयसा ) ऐश्वयं, वीर्य, सामर्थ्य से ( अच्छिन्नं तन्तुम् ) अटूट सन्तान के समान विस्तृत राज्य प्रबन्ध को बढ़ानेवाली हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इडासरस्वतीभारत्यस्तिस्रो देव्यो देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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