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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 45
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - वनस्पतिर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    वन॒स्पति॒रव॑सृष्टो॒ न पाशै॒स्त्मन्या॑ सम॒ञ्जञ्छ॑मि॒ता न दे॒वः।इन्द्र॑स्य ह॒व्यैर्ज॒ठरं॑ पृणा॒नः स्वदा॑ति य॒ज्ञं मधु॑ना घृ॒तेन॑॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वन॒स्पतिः॑। अव॑सृष्ट॒ इत्य॒वऽसृ॑ष्टः। न। पाशैः॑। त्मन्या॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। श॒मि॒ता। न। दे॒वः। इन्द्र॑स्य। ह॒व्यैः। ज॒ठर॑म्। पृ॒णा॒नः। स्वदा॑ति। य॒ज्ञम्। मधु॑ना। घृ॒तेन॑ ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनस्पतिरवसृष्टो न पाशैस्त्मन्या समञ्जञ्छमिता न देवः । इन्द्रस्य हव्यैर्जठरम्पृणानः स्वदाति यज्ञम्मधुना घृतेन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वनस्पतिः। अवसृष्ट इत्यवऽसृष्टः। न। पाशैः। त्मन्या। समञ्जन्निति सम्ऽअञ्जन्। शमिता। न। देवः। इन्द्रस्य। हव्यैः। जठरम्। पृणानः। स्वदाति। यज्ञम्। मधुना। घृतेन॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 45
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    भावार्थ -
    (वनस्पतिः) वन में लगे वृक्षों के समान अगणित असंख्य प्रजा और सेनाजनों का पालक, महावृक्ष वट आदि के समान बहुतों को आश्रय देने वाला राजा स्वयं (पाशैः) सभी बन्धनों से (अवसृष्टः न) मुक्त सा होकर भी (त्मन्या) अपने तेजः सामर्थ्य से ( सम् अञ्जन् ) प्रकाशमान होता हुआ (देवः) सूर्य के समान तेजस्वी, अन्यों को प्रकाशप्रद होकर (शमिता न ) सब को शान्तिदायक एवं दण्डकर्त्ता-सा हो जाता है । वह (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान् राष्ट्र के ( जठरम् ) उदर के समान कोश को (हव्यैः) ग्रहण करने योग्य अन्न और ऐश्वर्यमय बहुमूल्य रत्नों से (पुणानः) पूर्ण करता हुआ ( यज्ञम् ) सुव्यवस्थित, सुसंगत राष्ट्र को (मधुना घृतेन)मधुर घी से भोजन के समान (मधुना ) मधुर (घृतेन) तेज से (स्वदाति) स्वयं सुख से भोग करता ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वनस्पतिरूप इन्द्रो देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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