अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
ददा॒मीत्ये॒व ब्रू॑या॒दनु॑ चैना॒मभु॑त्सत। व॒शां ब्र॒ह्मभ्यो॒ याच॑द्भ्य॒स्तत्प्र॒जाव॒दप॑त्यवत् ॥
स्वर सहित पद पाठददा॑मि । इति॑ । ए॒व । ब्रू॒या॒त्। अनु॑ । च॒ । ए॒ना॒म् । अभु॑त्सत । व॒शाम् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । याच॑त्ऽभ्य: । तत् । प्र॒जाऽव॑त् । अप॑त्यऽवत् ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ददामीत्येव ब्रूयादनु चैनामभुत्सत। वशां ब्रह्मभ्यो याचद्भ्यस्तत्प्रजावदपत्यवत् ॥
स्वर रहित पद पाठददामि । इति । एव । ब्रूयात्। अनु । च । एनाम् । अभुत्सत । वशाम् । ब्रह्मऽभ्य: । याचत्ऽभ्य: । तत् । प्रजाऽवत् । अपत्यऽवत् ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(वशाम्) वशीकृत वाणी, (याचद्भ्यः) याचना करने वाले (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मरूप हुए व्यक्तियों को (ददामि) मैं देता हूं, (इति एव ब्रूयात्) यह ही कहे, यदि (एनाम्) इस वशा के स्वरूप को (अनु अभुत्सत) अनुकूल रूप में जान लिया है। (तत्) वह अर्थात् वशास्वातन्त्र्य (प्रजावत्) प्रशस्त प्रजा वाला है, (अपत्यवत्) प्रशस्त सन्तान वाला है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ ब्राह्मणों को, वशीकृत वाणी के प्रयोग की स्वतन्त्रता देने का वर्णन है। उन ब्राह्मणों को जो कि ब्रह्मरूपता को प्राप्त हुए हैं। "यदग्ने स्यामहं त्वं त्वं वा या स्याः अहम्। स्युष्टे सत्या इहाशिषः।। (ऋ० ६। ३ अ० । ४० वर्ग । २३), अर्थात् हे सर्वाग्रणी ! जब मैं तुझ स्वरूप हो जाऊं, या तू मुझ स्वरूप हो जाय, तो इस जीवन में तेरे दिये आशीर्वाद सत्य हो जायें। योगी जब ब्रह्म को ध्येय कर, चित्तवृत्ति को ब्रह्म में लीन कर देता है, तब वह स्व-स्वरूप को भूल जाता, और ब्रह्म का ही केवल साक्षात् करता है, यह है योगी की ब्रह्मरूपता१। राजा का कर्त्तव्य है कि ऐसे योगिब्राह्मण को वाणी का स्वातन्त्र्य दे। इस की वाणी वशा है, स्वात्मवश है संयमित है। यह जो कुछ बोलेगा यथार्थ बोलेगा। इस के यथार्थ सदुपदेशों द्वारा प्रजाएं प्रशस्त बन जायेंगी, और सन्तानें भी प्रशस्त बन जायेंगीं। प्रजावत्, अपत्यवत् में "वत्" प्राशस्त्यार्थ में है। यथा “भूमनिन्दा प्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने सम्बन्धेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः"]। [१. ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" इस की व्याख्या भी इसी प्रकार जाननी चाहिए।]