अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
जाय॑माना॒भि जा॑यते दे॒वान्त्सब्रा॑ह्मणान्व॒शा। तस्मा॑द्ब्र॒ह्मभ्यो॒ देयै॒षा तदा॑हुः॒ स्वस्य॒ गोप॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठजाय॑माना: । अ॒भि । जा॒य॒ते॒ । दे॒वान् । सऽब्रा॑ह्मणान् । व॒शा । तस्मा॑त् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । देया॑ । ए॒षा । तत् । आ॒हु॒: । स्वस्य॑ । गोप॑नम् ॥४.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
जायमानाभि जायते देवान्त्सब्राह्मणान्वशा। तस्माद्ब्रह्मभ्यो देयैषा तदाहुः स्वस्य गोपनम् ॥
स्वर रहित पद पाठजायमाना: । अभि । जायते । देवान् । सऽब्राह्मणान् । वशा । तस्मात् । ब्रह्मऽभ्य: । देया । एषा । तत् । आहु: । स्वस्य । गोपनम् ॥४.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(वशा) वेदवाणी (जायमाना) प्रकट होती हुई, (सब्राह्मणान्) ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ अर्थात् ब्राह्मणों समेत (देवान्) दिव्य व्यक्तियों को (अभि) अभिमुख कर के (जायते) प्रकट होती है। (तस्मात्) इस लिये (एषा) यह वशा (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मज्ञों तथा वेदज्ञों के स्वामित्व के लिये (देया) दे देनी चाहिये, (तद्) इस दान को (स्वस्य गोपनम् आहुः) राजा की निज सुरक्षा रूप कहते हैं।
टिप्पणी -
[राष्ट्रिय प्रजाऔं और सन्तानों को प्रशस्त बनाने के लिये, ब्रह्मवेत्ताओं तथा वेदवेत्ताओं को वाणी की स्वतन्त्रता प्रदान करने के प्रकरण में "वशा" द्वारा वेदवाणी का वर्णन हुआ है। ऐसे तथा इस प्रकार के अन्य दिव्यगुणी विद्वानों को वेदवाणी के प्रचार का अधिकार, राजा द्वारा, प्राप्त होना चाहिये, इस से राजा की भी आत्मरक्षा हो सकेगी। ऐसे विद्वान् अपनी वाणी द्वारा, वेदवाणी के अनुकूल ही, प्रजा को सदुपदेश देंगें, जिस से राष्ट्रोन्नति हो कर राजा की स्थिरता बनी रहेगी]।