अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 35
पु॑रो॒डाश॑वत्सा सु॒दुघा॑ लो॒केऽस्मा॒ उप॑ तिष्ठति। सास्मै॒ सर्वा॒न्कामा॑न्व॒शा प्र॑द॒दुषे॑ दुहे ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रो॒डाश॑ऽवत्सा। सु॒ऽदुघा॑ । लो॒के । अ॒स्मै॒ । उप॑ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । सा । अ॒स्मै॒ । सर्वा॑न् । कामा॑न् । व॒शा । प्र॒ऽद॒दुषे॑ । दु॒हे॒ ॥४.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरोडाशवत्सा सुदुघा लोकेऽस्मा उप तिष्ठति। सास्मै सर्वान्कामान्वशा प्रददुषे दुहे ॥
स्वर रहित पद पाठपुरोडाशऽवत्सा। सुऽदुघा । लोके । अस्मै । उप । तिष्ठति । सा । अस्मै । सर्वान् । कामान् । वशा । प्रऽददुषे । दुहे ॥४.३५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 35
भाषार्थ -
(पुरोडाशवत्सा) पुरोडाशवत्सवाली, (सुदुघा) सुगमता से दुही जाने वाली (वशा) वेदवाणी (लोके) लोक में (अस्मै) इस राजा के लिये (उप तिष्ठति) उपस्थित होती है। वह (अस्मै) इस राजा के लिये, (प्रददुषे) जिसने कि वेदवाणी के प्रचार की स्वतन्त्रता दी हैं- (सर्वान् कामान्) सब कामनाओं का (दुहे) दोहन करती है।
टिप्पणी -
[सुदुघा गौ, बछड़े के सम्पर्क से, दूध देती है। मन्त्र में पुरोडाश को वशा का बछड़ा कहा है अर्थात् चावल की पीठी से कछुए के आकार में बनाए गए भटूरे को वत्स कहा है। पुरोडाश=Sacrificial cake। इस से प्रतीत होता है कि मन्त्र में "वशा" पद गोपशु वाचक नहीं। गोपशु का वत्स चार टांगों वाला प्राणी होता है, पुरोडाश नहीं। इसलिये मन्त्र में "वशा" पद वेदवाणी का वाचक है न कि गोपशु का। "लोके" का भी अभिप्राय है - इस लोक में, राजा के राज्य में। जो राजा निजराज्य में वेदप्रचार की स्वीकृति देता है उस के राज्य में सब कामनाएँ सफल हो जाती हैं। वेदवाणीरूपी वशा सब कामनाओं का दोहन करती है, केवल दूध का ही नहीं]।