अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 26
अ॒ग्नीषो॑माभ्यां॒ कामा॑य मि॒त्राय॒ वरु॑णाय च। तेभ्यो॑ याचन्ति ब्राह्म॒णास्तेष्वा वृ॑श्च॒तेऽद॑दत् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नीषोमा॑भ्याम् । कामा॑य । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय । च॒ । तेभ्य॑: । या॒च॒न्ति॒ । ब्रा॒ह्म॒णा: । तेषु॑ । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । अद॑दत् ॥४.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नीषोमाभ्यां कामाय मित्राय वरुणाय च। तेभ्यो याचन्ति ब्राह्मणास्तेष्वा वृश्चतेऽददत् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नीषोमाभ्याम् । कामाय । मित्राय । वरुणाय । च । तेभ्य: । याचन्ति । ब्राह्मणा: । तेषु । आ । वृश्चते । अददत् ॥४.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 26
भाषार्थ -
(अग्नीषोमाभ्याम्) राज्य में अग्नि और सोम की वृद्धि के लिये, (कामाय) काम्यपदार्थों के लिये, (मित्राय) मित्रों के लिये, (च वरुणाय) श्रेष्ठ व्यक्तियों के लिये, (तेभ्यः) उन सब के लिये, (ब्राह्मणाः) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ विद्वान् (याचन्ति) वशा की याचना करते हैं, (अददत्) राजा न देता हुआ, (तेषु) उन में रहता हुआ भी (आ वृश्चते) पूर्णतया अपने आप को अलग कर लेता है।
टिप्पणी -
[राज्य की वृद्धि के लिये अग्नि (Power) की तथा सोम (जल) की वृद्धि चाहिये। अग्नि द्वारा कलाकौशल की वृद्धि तथा जल द्वारा कृषि की वृद्धि होती है। इन द्वारा काम्य पदार्थों की उत्पत्ति होती है। वेद प्रचार द्वारा प्रजा में मैत्री-भावना का तथा श्रेष्ठता का प्रसार होता है। सोम= Water (जल) आप्टे। वरुणः=उत्तमम् (उणा० ३।५३, महर्षि दयानन्द)। अभिप्राय यह कि ब्राह्मण स्वार्थ के लिये वेदप्रचार नहीं चाहते, अपितु राष्ट्रोन्नति के लिये चाहते हैं]।