अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 27
याव॑दस्या॒ गोप॑ति॒र्नोप॑शृणु॒यादृचः॑ स्व॒यम्। चरे॑दस्य॒ ताव॒द्गोषु॒ नास्य॑ श्रु॒त्वा गृ॒हे व॑सेत् ॥
स्वर सहित पद पाठयाव॑त् । अ॒स्या॒: । गोऽप॑ति: । न । उ॒प॒ऽशृ॒णु॒यात् । ऋच॑: । स्व॒यम् । चरे॑त् । अ॒स्य॒ । ताव॑त् । गोषु॑ । न । अ॒स्य॒ । श्रु॒त्वा । गृ॒हे । व॒से॒त् ॥४.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
यावदस्या गोपतिर्नोपशृणुयादृचः स्वयम्। चरेदस्य तावद्गोषु नास्य श्रुत्वा गृहे वसेत् ॥
स्वर रहित पद पाठयावत् । अस्या: । गोऽपति: । न । उपऽशृणुयात् । ऋच: । स्वयम् । चरेत् । अस्य । तावत् । गोषु । न । अस्य । श्रुत्वा । गृहे । वसेत् ॥४.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 27
भाषार्थ -
(गोपतिः) पृथिवी का पति राजा (याक्त) जब तक (अस्याः) इस वशा अर्थात् वेदवाणी की (ऋचः) ऋचाओं को (न उपशृणुयात् स्वयम्) अपने आप नहीं सुनता, (तावत्) तब तक (अस्य) इस गोपति के (गोषु) स्तोताओं में वशा अर्थात् वेदवाणी (चरेत्) विचरे, (श्रुत्वा) ऋचाओं को सुन कर (अस्य) इस गोपति के (गृहे) केवल गृह में ही (न वसेत्) न बसे, न विचरे।
टिप्पणी -
[वशा का अर्थ यदि गौ (पशु) हो तो वह ऋचाएं कैसे बोलेगी। वेदवाणी तो ऋचाएं बोलती ही है। अतः इस वशा प्रकरण में वशा का अर्थ वेदवाणी ही जानना चाहिये। वेदवाणी मानो वेदज्ञ ब्राह्मण के मुख द्वारा ऋचाओं का उच्चारण करती है। गोपति का अर्थ है पृथिवीपति, न कि ग्वाला। इसीलिये मन्त्र ३२ में 'राजन्य', और मन्त्र ३३ में 'राजन्यस्य' पद पठित हैं। मन्त्र में यह भी निर्देश मिलता है कि गोपति के अन्य कार्यों में व्याप्त होने के कारण वह वेदवाणी के सदुपदेशों से वञ्चित रहता है। इसलिये वेदवाणी राजा के स्तोतृ आदि याज्ञिकों तक सीमित रहती है, परन्तु गोपति जब स्वयं वेदवाणी की ऋचाओं श्रवण करता है तब वह वेदवाणी के सदुपदेशों के प्रचार की इच्छा करता है, और वेदवाणी पहिले जो उस के गृह्यकृत्यों के लिये याज्ञिकों द्वारा प्रयुक्त होती थी वह अब राष्ट्रकृत्यों के लिये भी उपयुक्त होती है। गोषु, गौः स्तोतृनाम (निघं० ३।१६)]|