अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
प॒दोर॑स्या अधि॒ष्ठाना॑द्वि॒क्लिन्दु॒र्नाम॑ विन्दति। अ॑नाम॒नात्सं शी॑र्यन्ते॒ या मुखे॑नोप॒जिघ्र॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठप॒दो: । अ॒स्या॒: । अ॒धि॒ऽस्थाना॑त् । वि॒ऽक्लिन्दु॑: । नाम॑ । वि॒न्द॒ति॒ । अ॒ना॒म॒नात् । सम् । शी॒र्य॒न्ते॒ । या: । मुखे॑न । उ॒प॒ऽजिघ्र॑ति ॥४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
पदोरस्या अधिष्ठानाद्विक्लिन्दुर्नाम विन्दति। अनामनात्सं शीर्यन्ते या मुखेनोपजिघ्रति ॥
स्वर रहित पद पाठपदो: । अस्या: । अधिऽस्थानात् । विऽक्लिन्दु: । नाम । विन्दति । अनामनात् । सम् । शीर्यन्ते । या: । मुखेन । उपऽजिघ्रति ॥४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(अस्याः) इस वाणी के (पदोः) प्रतिपाद्य दो [विषयों] के (अधिष्ठानात्) अधिष्ठानरूप ब्रह्मज्ञ को प्राप्त कर (विक्लिन्दुः) विशेष प्रकार से गीला हुआ पृथिवीपति, (नाम) नम्रता को (विन्दति) प्राप्त होता है। (अनामनात्) और न नम्र होने से (सं शीर्यन्ते) इस की प्रजाएं नष्ट हो जाती हैं, (याः) जिन प्रजाओं को ब्रह्मज्ञ की वाणी (मुखेन) ब्रह्मज्ञ के मुख द्वारा, (उप जिघ्रति) समीप हो कर सूंघती१ है। पदोः; देखो “पदवायम्" (१२।५। पर्याय १।४)।
टिप्पणी -
[अधिष्ठानात् विन्दति=अधिष्ठानं प्राप्य विन्दति। यथा प्रासादात् प्रेक्षते=प्रासादमारुह्य प्रेक्षते। पदोः=प्रतिपाद्य दो विषय=अभ्युदय और निश्रेयस। विक्लिन्दुः=पसीने से गीला हुआ। मन्त्र ४ में विलोहित द्वारा, भय के कारण मुख के पीलेपन का वर्णन हुआ है, और मन्त्र ५ में भय के कारण छूटे पसीने का वर्णन किया है][१. उपजिघ्रति= इस द्वारा ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ की वाणी को विषैली सर्पिणी कहा है। विषैला सर्प सूंघने मात्र से व्यक्ति को मार देता है। यथा "स्पृशन्नपि गजो हन्ति जिघ्रन्नपि भुजङ्गमः” हितोपदेश ३।१४; तथा भामिनी विलास १।९९।२।]