अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 16
चरे॑दे॒वा त्रै॑हाय॒णादवि॑ज्ञातगदा स॒ती। व॒शां च॑ वि॒द्यान्ना॑रद ब्राह्म॒णास्तर्ह्ये॒ष्याः ॥
स्वर सहित पद पाठचरे॑त् । ए॒व । आ । त्रै॒हा॒य॒नात् । अवि॑ज्ञातऽगदा । स॒ती । व॒शाम् । च॒ । वि॒द्यात् । ना॒र॒द॒ । ब्रा॒ह्म॒णा: । तर्हि॑ । ए॒ष्या᳡: ॥४.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
चरेदेवा त्रैहायणादविज्ञातगदा सती। वशां च विद्यान्नारद ब्राह्मणास्तर्ह्येष्याः ॥
स्वर रहित पद पाठचरेत् । एव । आ । त्रैहायनात् । अविज्ञातऽगदा । सती । वशाम् । च । विद्यात् । नारद । ब्राह्मणा: । तर्हि । एष्या: ॥४.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
वशा (आ त्रैहायणात्) तीन वर्षों की अवधि तक (अविज्ञातगदा सती) अज्ञात रूप में (चरेत् एव) विचरती ही रहे (नारद) हे नरसमाज के शोधक! (च) और (वशाम्) वशीकृत वाणी के स्वरूप को (विद्यात्) राजा जब जान ले (तर्हि) तो (ब्राह्मणाः) ब्रह्मज्ञ यथा वेदज्ञ व्यक्ति (एष्याः) ढूंढने चाहियें, ताकि उन्हें वाणी का स्वातन्त्र्य दिया जा सके।
टिप्पणी -
[तीन वर्षों तक ब्राह्मण शान्ति के उपायों का अवलम्बन कर जनता में व्याख्यान न दें, अपितु व्यक्तिरूप में परस्पर मिल कर वेदवाणी का प्रचार करते रहें। राजा को जब यह ज्ञात हो जायगा कि ब्राह्मण लोग अपनी वक्तृताओं द्वारा प्रजा को भड़का कर वाणी स्वातन्त्र्य नहीं चाहते, तो नरों की विचारशुद्धि और आचारशुद्धि चाहने वाला अधिकारी, नारद स्वयं ऐसे शान्तिप्रिय ब्राह्मणों की खोज करेगा ताकि प्रजा में वे वेदवाणी का प्रचार करें। नारद=नार (नृणां समूहः)+द (दैप् शोधने)। सम्भवतः नारद धर्माधिकारी है]।