अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 19
दु॑रद॒भ्नैन॒मा श॑ये याचि॒तां च॒ न दित्स॑ति। नास्मै॒ कामाः॒ समृ॑ध्यन्ते॒ यामद॑त्त्वा॒ चिकी॑र्षति ॥
स्वर सहित पद पाठदु॒र॒द॒भ्ना । ए॒न॒म् । आ । श॒ये॒ । या॒चि॒ताम् । च॒ । न । दित्स॑ति । न । अ॒स्मै॒ । कामा॑: । सम । ऋ॒ध्य॒न्ते॒ । याम् । अद॑त्वा । चिकी॑र्षति ॥४.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
दुरदभ्नैनमा शये याचितां च न दित्सति। नास्मै कामाः समृध्यन्ते यामदत्त्वा चिकीर्षति ॥
स्वर रहित पद पाठदुरदभ्ना । एनम् । आ । शये । याचिताम् । च । न । दित्सति । न । अस्मै । कामा: । सम । ऋध्यन्ते । याम् । अदत्वा । चिकीर्षति ॥४.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(दुरदभ्ना) दर्वाजों को तोड़ देने वाली वशा (एनम्) इस के समीप (आशये) सोई सी रहती है, जो कि (याचिताम्) मांगी गई को (न दित्सति) नहीं देना चाहता। (अस्मै) इस के लिए (कामाः) कामनाएं (न समृध्यन्ते) संमृद्ध नहीं होतीं, (याम्) जिस वशा को (अदत्त्वा) न देकर (चिकीर्षति) यह करना चाहता है।
टिप्पणी -
[दुरदभ्ना=दुर (दर्वाजा)+दभ् (तोड़ना) तथा (मन्त्र ४)। मन्त्र में राजा का वर्णन "दित्सति" द्वारा हुआ है। वेदवाणी के प्रचार की स्वतन्त्रता न देने पर, स्वतन्त्रताभिलाषी व्यक्ति, राजा के निवास स्थान के दरवाजे तोड़ कर राजा पर आक्रमण कर देते हैं। दुरः= द्वार (अथर्व० २०।२१।२)। दुर=Door]।