अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
यो अ॑स्याः॒ कर्णा॑वास्कु॒नोत्या स दे॒वेषु॑ वृश्चते। लक्ष्म॑ कुर्व॒ इति॒ मन्य॑ते॒ कनी॑यः कृणुते॒ स्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्या॒: । कर्णौ॑ । आ॒ऽस्कु॒नोति॑ । आ । स: । दे॒वेषु॑ । वृ॒श्च॒ते॒ । लक्ष्म॑ । कु॒र्वे॒ । इति॑ । मन्य॑ते । कनी॑य: । कृ॒णु॒ते॒ । स्वम् ॥४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्याः कर्णावास्कुनोत्या स देवेषु वृश्चते। लक्ष्म कुर्व इति मन्यते कनीयः कृणुते स्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्या: । कर्णौ । आऽस्कुनोति । आ । स: । देवेषु । वृश्चते । लक्ष्म । कुर्वे । इति । मन्यते । कनीय: । कृणुते । स्वम् ॥४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(यः) जो [गोपति् अर्थात् पृथिवीपति] (अस्याः) ब्रह्मज्ञ की इस वाणी के सम्बन्ध के (कर्णौ) कानों को (आस्कुनोति) अपने और झुकाने का यत्न करता है, (सः) वह (देवेषु) देवसंघ में (वृश्चते) अपने-आप को पृथक् कर लेता है। और जो (इति मन्यते) यह मानता है कि (लक्ष्म कुर्वे) मैं इन का केवल दर्शन करता हूं वह देवसंघ में (स्वम्) अपने आप को (कनीयः) छोटा (कुरुते) कर लेता है।
टिप्पणी -
[कर्णौ=वाणी सम्बन्धी दो कान हैं, दो प्रकार के श्रोतृवर्ग। प्रजाऔं में कई तो राजपक्ष के लोग होते हैं और कई प्रजा के नेतृपक्ष के। राजा दोनों पक्षों के नेताओं की वक्तृताओं को सुनता है, मानो ये दोनों पक्षों के लोग दो कान रूप हैं। कान सुनते हैं। सुनने के कारण इन्हें कान कहा है। जैसे "षट्कर्णो भिद्यते मन्त्रः” (पञ्चतन्त्र १।९९), में मन्त्र का विशेषण है "षट्कर्णः" इसी प्रकार "अस्याः कर्णौ" में वाणी के दो कर्ण कहे हैं]।