अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 29
व॒शा चर॑न्ती बहु॒धा दे॒वानां॒ निहि॑तो नि॒धिः। आ॒विष्कृ॑णुष्व रू॒पाणि॑ य॒दा स्थाम॒ जिघां॑सति ॥
स्वर सहित पद पाठव॒शा । चर॑न्ती । ब॒हु॒ऽधा । दे॒वाना॑म् । निऽहि॑त: । नि॒ऽधि: । आ॒वि: । कृ॒णु॒ष्व॒ । रू॒पाणि॑। य॒दा । स्थाम॑ । जिघां॑सति ॥४.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
वशा चरन्ती बहुधा देवानां निहितो निधिः। आविष्कृणुष्व रूपाणि यदा स्थाम जिघांसति ॥
स्वर रहित पद पाठवशा । चरन्ती । बहुऽधा । देवानाम् । निऽहित: । निऽधि: । आवि: । कृणुष्व । रूपाणि। यदा । स्थाम । जिघांसति ॥४.२९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 29
भाषार्थ -
(देवानां निहितः निधिः) देवकोटि के विद्वानों का सुरक्षित खजाना (वशा) वेदवाणी, (बहुधा) बहुत प्रकार के विषयों में (चरन्ती) गति करती हुई, (रूपाणि) नाना रूपों का (आविष्कृणुष्व=आविष्करोति) आविर्भाव अर्थात् वर्णन करती है, (यदा) जब कि यह (स्थाम) निज स्थान अर्थात् आश्रय में (जिघांसति) जाना चाहती है।
टिप्पणी -
[अभिप्राय यह कि वेदवाणी जब ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ विद्वानों में आश्रय पाती है, तब नाना विषयों का प्रतिपादन करती है। ये विषय हैं आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक। इस वेदवाणी का निज स्थान है - ब्राह्मण। यथा “विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि" (निरु० २।१।३)। विद्या=वेदविद्या; तथा (३०, ३१)। जिघांसति = हन् हिंसागत्योः=जिगमिषति]।