अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 37
प्र॑वी॒यमा॑ना चरति क्रु॒द्धा गोप॑तये व॒शा। वे॒हतं॑ मा॒ मन्य॑मानो मृ॒त्योः पाशे॑षु बध्यताम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽवी॒यमा॑ना । च॒र॒ति॒ । क्रु॒ध्दा । गोऽप॑तये । व॒शा । वे॒हत॑म्। मा॒ । मन्य॑मान: । मृ॒त्यो: । पाशे॑षु । ब॒ध्य॒ता॒म् ॥४.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रवीयमाना चरति क्रुद्धा गोपतये वशा। वेहतं मा मन्यमानो मृत्योः पाशेषु बध्यताम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽवीयमाना । चरति । क्रुध्दा । गोऽपतये । वशा । वेहतम्। मा । मन्यमान: । मृत्यो: । पाशेषु । बध्यताम् ॥४.३७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 37
भाषार्थ -
(प्रवीयमाना) गर्भवती (वशा) वशा (गोपतये) गोपति के लिये (क्रुद्धा) क्रुद्ध हुई सी (चरति) विचरती है। गोपति जोकि (मा) मुझे (वेहतम्) गर्भघातिनी (मन्यमानः) मानता है वह (मृत्योः) मृत्यु के (पाशेषु) फन्दों में (बध्यताम्) वान्धा जाय।
टिप्पणी -
[मन्त्र ३५ के अभिप्राय के आधार पर मन्त्र ३७ की निम्नलिखित व्याख्या प्रतीत होती है:- कविता शैली में वेदवाणी कहती हैं कि पृथिवीपति मुझ गर्भवती को गर्भघातिनी न समझे। गर्भघातिनी गृहस्थ-जीवन के लिये अनुपयोगी है। इसी प्रकार यदि पृथिवीपति मुझ वेदवाणी को राष्ट्रिय जीवन के लिये अनुपयोगी समझता है तो वह जान ले कि मेरे पेट में जो सत्यनियमों के गर्भ विद्यमान हैं उन से लाभ न लेने पर पृथिवीपति अन्ततोगत्वा मृत्यु का ग्रास बनेगा। राष्ट्र में वेद प्रतिपादित समुन्नति के उपायों का आश्रय न लेने से प्रजा दुःखी हो कर पृथिवीपति का विनाश कर देंगी]।