अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 23
य ए॒वं वि॒दुषे॑ऽद॒त्त्वाथा॒न्येभ्यो॒ दद॑द्व॒शाम्। दु॒र्गा तस्मा॑ अधि॒ष्ठाने॑ पृथि॒वी स॒हदे॑वता ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ए॒वम् । वि॒दुषे॑ । अद॑त्त्वा । अथ॑ । अ॒न्येभ्य॑: । दद॑त् । व॒शाम् । दु॒:ऽगा । तस्मै॑ । अ॒धि॒ऽस्थाने॑ । पृ॒थि॒वी । स॒हऽदे॑वता ॥४.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
य एवं विदुषेऽदत्त्वाथान्येभ्यो ददद्वशाम्। दुर्गा तस्मा अधिष्ठाने पृथिवी सहदेवता ॥
स्वर रहित पद पाठय: । एवम् । विदुषे । अदत्त्वा । अथ । अन्येभ्य: । ददत् । वशाम् । दु:ऽगा । तस्मै । अधिऽस्थाने । पृथिवी । सहऽदेवता ॥४.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 23
भाषार्थ -
(यः) जो राजा (एवं विदुषे) इस प्रकार के ज्ञानी को (अदत्त्वा) न दे कर (अथ) फिर (अन्येभ्यः) अन्यों को (वशाम्) वेदवाणी के प्रचार की स्वतन्त्रता (ददद्) प्रदान करता है, (तस्मै) उस के लिये (सहदेवता) देवताओं सहित (पृथिवी) पृथिवी, (अधिष्ठाने) राजा के निज निवास स्थान में, (दुर्गा) दुःख पहुंचाती है।
टिप्पणी -
[यदि राजा विद्वान् ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ को वेदप्रचार की स्वतन्त्रता न दे कर अन्यों को स्वतन्त्रता देता है, तो मानो पृथिवी के वासी निज नेताओं के साथ मिल कर उसे उसके निवास स्थान पर जा कर कष्ट पहुंचाते हैं]।