अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 24
दे॒वा व॒शाम॑याच॒न्यस्मि॒न्नग्रे॒ अजा॑यत। तामे॒तां वि॑द्या॒न्नार॑दः स॒ह दे॒वैरुदा॑जत ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वा: । व॒शाम् । अ॒या॒च॒न् । यस्मि॑न् । अग्रे॑ । अजा॑यत । ताम् । ए॒ताम् । वि॒द्या॒त् । नार॑द: । स॒ह । दे॒वै: । उत् । आ॒ज॒त॒ ॥४.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
देवा वशामयाचन्यस्मिन्नग्रे अजायत। तामेतां विद्यान्नारदः सह देवैरुदाजत ॥
स्वर रहित पद पाठदेवा: । वशाम् । अयाचन् । यस्मिन् । अग्रे । अजायत । ताम् । एताम् । विद्यात् । नारद: । सह । देवै: । उत् । आजत ॥४.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
(देवाः) देवों ने (वशाम्) वेदवाणी की (अयाचन्) याचना उस से की (यस्मिन्) जिस किसी व्यक्ति में (अग्रे) प्रथम (अजायत) वेदवाणी प्रकट हुई। (नारदः) नर-नारी समाज को शुद्ध करने वाला वह व्यक्ति (ताम्) उस वशा के स्वरूप को (विद्यात्) जान ले। (देवैः सह) राष्ट्र के देवों के साथ मिल कर वह व्यक्ति (एताम्) इस वशा अर्थात् वेदवाणी को (उदाजत) समुन्नत करता है। "अग्रे अजायत" देखो (मन्त्र १४)।
टिप्पणी -
[जिस किसी व्यक्ति में वेदप्रचार की अभिव्यक्ति प्रथम हो उस की सहायता सभी देवकोटि के विद्वान् कर के वेदविद्या की समुन्नति में सहयोग दें। नारदः=नार (नर नारियों का समाज)+द(दैप शोधने)]।