अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
यो अ॑स्य॒ स्याद्व॑शाभो॒गो अ॒न्यामि॑च्छेत॒ तर्हि॒ सः। हिंस्ते॒ अद॑त्ता॒ पुरु॑षं याचि॒तां च॒ न दित्स॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य॒ । स्यात् । व॒शा॒ऽभो॒ग: । अ॒न्याम् । इ॒च्छे॒त॒ । तर्हि॑ । स: । हिंस्ते॑ । अद॑त्ता । पुरु॑षम् । या॒चि॒ताम् । च॒ । न । दित्स॑ति ॥४.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्य स्याद्वशाभोगो अन्यामिच्छेत तर्हि सः। हिंस्ते अदत्ता पुरुषं याचितां च न दित्सति ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । स्यात् । वशाऽभोग: । अन्याम् । इच्छेत । तर्हि । स: । हिंस्ते । अदत्ता । पुरुषम् । याचिताम् । च । न । दित्सति ॥४.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 13
भाषार्थ -
(अस्य) इस राजा का (यः वशा भोगः) वेदवाणी द्वारा सम्पन्न जो भोग (स्यात्) हो, (तर्हि) तो (सः) वह राजा (अन्याम्) अन्य रीति को (इच्छेत) अपनाने की इच्छा करे। (अदत्ता) न दी गई (पुरुषम्) राज पुरुष की (हिंस्ते) हिंसा कर देती है, जोकि (याचिताम्) याचना की गई को (न दित्सति) नहीं देना चाहता।
टिप्पणी -
[भोगों की अन्य रीति=अपनी मिल्ल लगाना लेना, टैक्स नए लगा देना, व्यापार आदि। वेदवाणी के प्रचार पर प्रतिबन्ध१ लगा कर राजा निजभोगों के सम्पादन की इच्छा न करे, क्योंकि वेद प्रचार न होने से प्रजाएं और सन्तान प्रशस्त नहीं हो सकतीं। विशेष:–(१) मन्त्रों में "ब्रह्मभ्यः, आर्षेयेभ्यः, ब्राह्मणानां, देवानाम्" में बहुवचन, और "गाम्” में एक वचन होने से, एक गौ के लिये बहुतों की मांग प्रतीत होती है। यदि "गौ" का अर्थ "गोप्राणी" किया जाये तो राजा किस को गौ दे, यह राजा के निश्चय के लिये प्रश्न पैदा हो जायेगा। यदि गौ का अर्थ वेदवाणी और उस के प्रचार के लिये ब्राह्मणों को वाणी प्रयोग का स्वातन्त्रय दिया जाये तो कोई कठिनाई पैदा नहीं हो सकती। (२) ब्राह्मणाम्, देवानाम्" में भेद यह है कि जो तो वेद प्रचार करना चाहते हैं उन्हें तो मन्त्रों में ब्राह्मण शब्दों द्वारा निर्दिष्ट किया है, और जो वेदवाणी के भक्त तो हैं, परन्तु उस के प्रचार में रुचि नहीं रखते उन्हें इन मन्त्रों में देव शब्दों द्वारा निर्दिष्ट किया है]। [१. प्रतिबन्ध=निरोधव (मन्त्र १५)। राजा वेदवाणी के प्रचार पर प्रतिबन्ध इसलिये लगाता है कि इस के प्रचार द्वारा उस के निजभोग कहीं समाप्त न हो जायें, क्योंकि वेदवाणी तो "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः, मा गृधः" का उपदेश देती है (यजु० ४०।१)।]