अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 45
नम॑स्ते अस्तु नारदानु॒ष्ठु वि॒दुषे॑ व॒शा। क॑त॒मासां॑ भी॒मत॑मा॒ यामद॑त्त्वा परा॒भवे॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । ना॒र॒द॒ । अ॒नु॒ष्ठु । वि॒दुषे॑ । व॒शा । क॒त॒मा । आ॒सा॒म्। भी॒मऽत॑मा । याम् । अद॑त्वा । प॒रा॒ऽभवे॑त् ॥४.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते अस्तु नारदानुष्ठु विदुषे वशा। कतमासां भीमतमा यामदत्त्वा पराभवेत् ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । अस्तु । नारद । अनुष्ठु । विदुषे । वशा । कतमा । आसाम्। भीमऽतमा । याम् । अदत्वा । पराऽभवेत् ॥४.४५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 45
भाषार्थ -
(नारद) हे नर-नारियों को शुद्ध करने वाले ! (नमस्ते अस्तु) तुझे नमस्कार हो, (अनुष्ठु) यह अनुरूप स्थिति है कि (वशा) काम्या तथा कान्तिमती वेदवाणी के प्रचार का अधिकार (विदुषे) विद्वान व्यक्ति के लिये है। (आसाम्) इन वेदवाणियों में (कतमा) कौन सी (भीमतमा) सर्वाधिक जयप्रदा है (याम् अदत्त्वा) जिसे न देकर (पराभवेत्) राजन्य पराभव को प्राप्त करता है।
टिप्पणी -
[राजन्य (३२, ३३) यदि भीमतमा अर्थात् विलिप्ती (४१) वेदवाणी के प्रचार की स्वतन्त्रता विद्वान् ब्रह्मवेत्ता को नहीं देता तो वह प्रजा द्वारा पराभव अर्थात् अपमान् को प्राप्त होता है। विलिप्ती वेदवाणी राग-द्वेष आदि के लेप से रहित होने का उपदेश देती है, जिस द्वारा जीवन उत्कृष्ट बनता है। विलेपमार्ग अतिदुर्गम होने से भीमतम है]।