अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
य ए॑नां व॒निमा॒यन्ति॒ तेषां॑ दे॒वकृ॑ता व॒शा। ब्र॑ह्म॒ज्येयं॒ तद॑ब्रुव॒न्य ए॑नां निप्रिया॒यते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । ए॒ना॒म् । व॒निम् । आ॒ऽयन्ति॑ । तेषा॑म् । दे॒वऽकृ॑ता । व॒शा । ब्र॒ह्म॒ऽज्येय॑म् । तत् । अ॒ब्रु॒व॒न् । य: । ए॒ना॒म् । नि॒ऽप्रि॒य॒यते॑ ॥४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
य एनां वनिमायन्ति तेषां देवकृता वशा। ब्रह्मज्येयं तदब्रुवन्य एनां निप्रियायते ॥
स्वर रहित पद पाठये । एनाम् । वनिम् । आऽयन्ति । तेषाम् । देवऽकृता । वशा । ब्रह्मऽज्येयम् । तत् । अब्रुवन् । य: । एनाम् । निऽप्रिययते ॥४.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 11
विषय - ब्रह्मज्येयम्
पदार्थ -
१.(ये) = जो (एनाम्) = इस (वनिम् आयन्ति) = संभजनीय वेदवाणी को सब प्रकार से प्राप्त करते हैं, यह (देवकृता वशा) = प्रभु से उत्पन्न की गई कमनीय वेदवाणी (तेषाम्) = उनकी ही है। वेदवाणी उन्हें ही प्राप्त होती है, जो इसे चाहते हैं, २. परन्तु (यः एनाम्) = जो इस वेदवाणी को (निप्रियायते) = नीचभाव से [नि] अपना ही प्रिय धन मानकर छिपा रखता है, उसके (तत्) = उस कार्य को (ब्रह्मज्येयं अब्रुवन्) = ज्ञान का हिंसन कहते हैं [ज्या बयहानौ] । ज्ञान को पात्रों में देना ही उचित है। यही इस ज्ञानधन के रक्षण का उपाय है।
भावार्थ -
ज्ञान के प्रबल इच्छुकों को ही यह वेदज्ञान प्राप्त होता है। पात्रों में इस ज्ञान का अदान, इस ज्ञान का हिंसन है।
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