अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
यो अ॑स्य॒ स्याद्व॑शाभो॒गो अ॒न्यामि॑च्छेत॒ तर्हि॒ सः। हिंस्ते॒ अद॑त्ता॒ पुरु॑षं याचि॒तां च॒ न दित्स॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य॒ । स्यात् । व॒शा॒ऽभो॒ग: । अ॒न्याम् । इ॒च्छे॒त॒ । तर्हि॑ । स: । हिंस्ते॑ । अद॑त्ता । पुरु॑षम् । या॒चि॒ताम् । च॒ । न । दित्स॑ति ॥४.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्य स्याद्वशाभोगो अन्यामिच्छेत तर्हि सः। हिंस्ते अदत्ता पुरुषं याचितां च न दित्सति ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । स्यात् । वशाऽभोग: । अन्याम् । इच्छेत । तर्हि । स: । हिंस्ते । अदत्ता । पुरुषम् । याचिताम् । च । न । दित्सति ॥४.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 13
विषय - वशाभोग:
पदार्थ -
१. (य:) = जो (अस्य) = इस (वशाभोग: स्यात्) = कमनीय वेदवाणी का पालन [ भुज् पालने] हो ऐसा चाहे, अर्थात् यदि यह अपने समीप वेदवाणी का रक्षण चाहे, (तर्हि) = तो (स:) = वह (अन्याम्) = जीवन का पालन करनेवाली दूसरी वृत्ति [जीविका] को (इच्छेत्) = चाहे । वेदवाणी को जीविका-प्राप्ति का साधन न बनाये। २. (यचितां च) = माँगी हुई वृत्ति को भी (न दित्सति) = यदि यह देना नहीं चाहता, तो अदत्ता न दी हुई यह वेदवाणी (पुरुषं हिंस्ते) = उस वेदज्ञ पुरुष को हिंसित कर देती है।
भावार्थ -
वेदज्ञ पुरुष को चाहिए कि वेदज्ञान के इच्छुक के लिए वेदवाणी को दे ही। वह इसे आजीविका-प्राप्ति का साधन न बनाये। यदि वेदज्ञ वेदज्ञान को औरों के लिए नहीं देता तो वह बेदज्ञान उसका ही हिंसन कर देता है।
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