अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 17
य ए॑ना॒मव॑शा॒माह॑ दे॒वानां॒ निहि॑तं नि॒धिम्। उ॒भौ तस्मै॑ भवाश॒र्वौ प॑रि॒क्रम्येषु॑मस्यतः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ए॒ना॒म् । अव॑शाम् । आह॑ । दे॒वाना॑म् । निऽहि॑तम् । नि॒ऽधिम् । उ॒भौ । तस्मै॑ । भ॒वा॒श॒र्वौ । प॒रि॒ऽक्रम्य॑ । इषु॑म् । अ॒स्य॒त॒: ॥४.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
य एनामवशामाह देवानां निहितं निधिम्। उभौ तस्मै भवाशर्वौ परिक्रम्येषुमस्यतः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । एनाम् । अवशाम् । आह । देवानाम् । निऽहितम् । निऽधिम् । उभौ । तस्मै । भवाशर्वौ । परिऽक्रम्य । इषुम् । अस्यत: ॥४.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 17
विषय - भवाशर्वौ
पदार्थ -
१. (य:) = जो (एनाम्) = इस वेदवाणी को (अवशाम् आह) = न कमनीया-न चाहने योग्य कहता है और ऐसा नहीं समझता कि यह वेदवाणी तो (देवानां निहितं निधिम्) = देवों का प्रभु द्वारा हृदय में स्थापित ज्ञानकोश है, (तस्मै) = उसके लिए (उभौ) = दोनों (भवाशी) = भव और शर्व उत्पत्ति व संहार-जन्म और मरण (परिक्रम्य) = परिक्रमा करके (इषुम् अस्यतः) = बाण फेंकते हैं, अर्थात् इसे जन्म और मरण पीड़ित किये रहते हैं। यह बारम्बार जन्म लेता है और मरण का शिकार होता है-जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहता है।
भावार्थ -
ज्ञान के कोश को कमनीय न माननेवाला व्यक्ति ज्ञान से दूर रहता हुआ जन्म मरण के चक्र में फंसा रहता है।
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