अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 27
याव॑दस्या॒ गोप॑ति॒र्नोप॑शृणु॒यादृचः॑ स्व॒यम्। चरे॑दस्य॒ ताव॒द्गोषु॒ नास्य॑ श्रु॒त्वा गृ॒हे व॑सेत् ॥
स्वर सहित पद पाठयाव॑त् । अ॒स्या॒: । गोऽप॑ति: । न । उ॒प॒ऽशृ॒णु॒यात् । ऋच॑: । स्व॒यम् । चरे॑त् । अ॒स्य॒ । ताव॑त् । गोषु॑ । न । अ॒स्य॒ । श्रु॒त्वा । गृ॒हे । व॒से॒त् ॥४.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
यावदस्या गोपतिर्नोपशृणुयादृचः स्वयम्। चरेदस्य तावद्गोषु नास्य श्रुत्वा गृहे वसेत् ॥
स्वर रहित पद पाठयावत् । अस्या: । गोऽपति: । न । उपऽशृणुयात् । ऋच: । स्वयम् । चरेत् । अस्य । तावत् । गोषु । न । अस्य । श्रुत्वा । गृहे । वसेत् ॥४.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 27
विषय - 'आचार्याय प्रियं धनमाहर, प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सी:'
पदार्थ -
१. (यावत्) = जब तक (अस्या:) = इस वशा [वेदवाणी] के (गोपतिः) = ज्ञान की वाणियों का रक्षक आचार्य (स्वयम्) = अपने-आप (ऋच:) = ऋचाओं को (न उपशृणुयात्) = विद्यार्थी से सुन न ले (तावत्) = तब तक (अस्य गोषु चरेत) = इस आचार्य से दी जानेवाली ज्ञान की वाणियों में ही यह विद्यार्थी विचरण करे, अर्थात् जब तक आचार्य इस विद्यार्थी की परीक्षा न ले-ले तब तक यह विद्यार्थी ब्रह्मचर्यपूर्वक वेदाध्ययन में ही प्रवृत्त रहे । २. परन्तु परीक्षोत्तीर्ण होने पर, अर्थात् (श्रुत्वा) = आचार्य से इन ज्ञान की वाणियों को सम्यक् सुनकर (अस्य गृहे न वसेत्) = इस आचार्य के घर में ही न रहता रहे। आचार्य से स्वीकृति पाकर संसार में आये। गृहस्थ आदि आश्रमों का सम्यक् निर्वहण करता हुआ अन्तत: संन्यस्त होकर उस वेदवाणी का सन्देश सबको सुनानेवाला बने। आचार्यकुल में ही अपने को समाप्त कर लेना भी ठीक नहीं होता। आयार्चकुल में इस वेदवाणी का श्रवण होता है, 'मनन' तो गृहस्थ में ही होना है और फिर वानप्रस्थ में इसका निदिध्यासन होकर संन्यास में वह इसका साक्षात्कार करता है और औरों के लिए इस ज्ञान को देनेवाला बनता है।
भावार्थ -
जब तक आचार्य से ली जानेवाली परीक्षा में यह विद्यार्थी उत्तीर्ण नहीं होता तब तक उसे आचार्यकुल में ही रहना है। उसके बाद वहीं न रहता रहे, अपितु गृहस्थ आदि आश्रमों में आगे बढ़े।
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