अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
ददा॒मीत्ये॒व ब्रू॑या॒दनु॑ चैना॒मभु॑त्सत। व॒शां ब्र॒ह्मभ्यो॒ याच॑द्भ्य॒स्तत्प्र॒जाव॒दप॑त्यवत् ॥
स्वर सहित पद पाठददा॑मि । इति॑ । ए॒व । ब्रू॒या॒त्। अनु॑ । च॒ । ए॒ना॒म् । अभु॑त्सत । व॒शाम् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । याच॑त्ऽभ्य: । तत् । प्र॒जाऽव॑त् । अप॑त्यऽवत् ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ददामीत्येव ब्रूयादनु चैनामभुत्सत। वशां ब्रह्मभ्यो याचद्भ्यस्तत्प्रजावदपत्यवत् ॥
स्वर रहित पद पाठददामि । इति । एव । ब्रूयात्। अनु । च । एनाम् । अभुत्सत । वशाम् । ब्रह्मऽभ्य: । याचत्ऽभ्य: । तत् । प्रजाऽवत् । अपत्यऽवत् ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
विषय - ब्रह्म-दान
पदार्थ -
१. (याचद्भ्यः ब्रह्मभ्यः) = याचना करनेवाले ब्राह्मणों [ज्ञान के पिपासुओं] के लिए 'ददामि' (इति एव ब्रुयात्) = 'देता हूँ' ऐसा ही कहे, अर्थात् ज्ञान देने में कभी संकोच व निषेध न करे (च) = और (एनाम्) = इस (वशाम्) = वेदवाणी को (अनु अभुत्सत) = आचार्यों की अनुकूलता में उनके निर्देशानुसार आचरण करते हुए जाने। २. (तत्) = वह ज्ञान देने व प्राप्त करने का कार्य (प्रजावत्) = राष्ट्र में उत्तम प्रजाओंवाला व (अपत्यवत्) = परिवारों में उत्तम सन्तानोंवाला होता है। ज्ञान के प्रसार से प्रजा व सन्तान उत्तम बनते है।
भावार्थ -
चाहनेवाले ज्ञान-पिपासुओं के लिए यह वेदज्ञान देना ही चाहिए। आचार्य के निर्देशानुसार कार्य करते हुए हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह ज्ञान-प्रसार प्रजाओं व सन्तानों के जीवनों को उत्तम बनाता है।
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