Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 60
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    ऊ॒र्ध्वायै॑ त्वा दि॒शे बृह॒स्पत॒येऽधि॑पतये श्वि॒त्राय॑ रक्षि॒त्रे व॒र्षायेषु॑मते। ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑। दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वायै॑ । त्वा॒ । दि॒शे । बृह॒स्पत॑ये । अधि॑ऽपतये। श्वि॒त्राय॑ । र॒क्षि॒त्रे । व॒र्षाय॑ । इषु॑ऽमते । ए॒तम् । परि॑। द॒द्म॒: । तम् । न॒: । गो॒पा॒य॒त॒ । आ । अ॒स्माक॑म् । आऽए॑तो: । दि॒ष्टम् । न॒: । अत्र॑ । ज॒रसे॑ । नि । ने॒ष॒त् । ज॒रा । मृ॒त्यवे॑ । परि॑ । न॒: । द॒दा॒तु॒ । अथ॑ । प॒क्वेन॑ । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥३.६०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वायै त्वा दिशे बृहस्पतयेऽधिपतये श्वित्राय रक्षित्रे वर्षायेषुमते। एतं परि दद्मस्तं नो गोपायतास्माकमैतोः। दिष्टं नो अत्र जरसे नि नेषज्जरा मृत्यवे परि णो ददात्वथ पक्वेन सह सं भवेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वायै । त्वा । दिशे । बृहस्पतये । अधिऽपतये। श्वित्राय । रक्षित्रे । वर्षाय । इषुऽमते । एतम् । परि। दद्म: । तम् । न: । गोपायत । आ । अस्माकम् । आऽएतो: । दिष्टम् । न: । अत्र । जरसे । नि । नेषत् । जरा । मृत्यवे । परि । न: । ददातु । अथ । पक्वेन । सह । सम् । भवेम ॥३.६०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 60

    पदार्थ -

    १. (एतं त्वा) = इस ध्रुववृतिबाले तुझ पुरुष को (ऊर्ध्वायै दिशे) = ऊर्ध्वा दिक् के लिए देते हैं तू उन्नति के शिखर पर पहुँचनेवाला बन। (बृहस्पतये अधिपतये) = इस दिशा का अधिपति बृहस्पति है-ब्रह्मणस्पति-ज्ञान का स्वामी। यह ज्ञान का स्वामी सर्वोच्च स्थिति में है। (श्वित्राय रक्षित्रे) = ज्ञान के द्वारा शुद्ध जीवनवाला इस सर्वोच्च स्थिति का रक्षक है। (वर्षाय इषुमते) = उस स्थिति में-धर्ममेघ समाधि में अन्दर से होनेवाली आनन्द की वृष्टि इस ऊर्वादिक में पहुँचने के लिए प्रेरणा देती है। जितना-जितना हम ऊर्ध्वादिक् में स्थिर होंगे उतना-उतना ही आनन्द अनुभव होगा। शेष पूर्ववत्०' |

    भावार्थ -

    ध्रुवता हमें सर्वोच्च स्थिति में पहुँचाती है। इस स्थिति का अधिपति बृहस्पति है-ज्ञानी है। शुद्ध जीवनवाला इस स्थिति का रक्षण करता है तथा आनन्द की वृष्टि का अनुभव हमें यहाँ पहुँचने की प्रेरणा देता है।

    यह बृहस्पति ही कश्यप' है-पश्यक। यही अगले सूक्त का ऋषि है। यह सब भूतों को अपने वश में करनेवाला होता है, अत: 'वशा' अगले सूक्त का देवता [विषय] है। सबको अपने वश में करने का साधन यह कमनीय वेदवाणी बनती है। वस्तुत: वेदवाणी ही कमनीय [चाहने योग्य] व ज्ञानदुग्ध को देनेवाली 'वशा' है -

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top