अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
उ॒भे नभ॑सी उ॒भयां॑श्च लो॒कान्ये यज्व॑नाम॒भिजि॑ताः स्व॒र्गाः। तेषां॒ ज्योति॑ष्मा॒न्मधु॑मा॒न्यो अग्रे॒ तस्मि॑न्पु॒त्रैर्ज॒रसि॒ सं श्र॑येथाम् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भे इति॑ । नभ॑सी॒ इति॑ । उ॒भया॑न् । च॒ । लो॒कान् । ये । यज्व॑नाम् । अ॒भिऽजि॑ता: । स्व॒:ऽगा: । तेषा॑म् । ज्योति॑ष्मान् । मधु॑ऽमान् । य: । अग्रे॑ । तस्मि॑न् । पु॒त्रै: । ज॒रसि॑ । सम् । श्र॒ये॒था॒म् ॥३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
उभे नभसी उभयांश्च लोकान्ये यज्वनामभिजिताः स्वर्गाः। तेषां ज्योतिष्मान्मधुमान्यो अग्रे तस्मिन्पुत्रैर्जरसि सं श्रयेथाम् ॥
स्वर रहित पद पाठउभे इति । नभसी इति । उभयान् । च । लोकान् । ये । यज्वनाम् । अभिऽजिता: । स्व:ऽगा: । तेषाम् । ज्योतिष्मान् । मधुऽमान् । य: । अग्रे । तस्मिन् । पुत्रै: । जरसि । सम् । श्रयेथाम् ॥३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
विषय - स्वर्ग [ज्योतिष्मान् मधुमान्]
पदार्थ -
१. हे पति-पत्नी! गतमन्त्र के अनुसार वानस्पतिक भोजनों का ही प्रयोग करते हुए तुम (उभे नभसी) = दोनों लोकों को-द्यावापृथिवी को-मस्तिष्क व शरीर को (संश्रयेथाम्) = सम्यक प्राप्त करनेवाले बनो। भोजन से तुम्हारा शरीर शक्ति को तथा मस्तिष्क दीप्ति को प्राप्त करेगा (च) = और इस भोजन से तुम (उभयान् लोकान्) = दोनों लोकों को अपने बड़े वृद्ध माता-पिता को तथा छोटे सन्तानों को सेवित करनेवाले बनो। बड़ों का आदर करो तथा छोटों का निर्माण करने के लिए यत्नशील होओ। मांसाहार हमें स्वार्थी-सा बनाकर इन वृत्तियों से दूर करता है। २. (ये) = जो (यज्वनाम् अभिजिता:) = यज्ञशील पुरुषों से जीते गये (स्वर्गा:) = प्रकाशमय व सुखमय लोक हैं, (तेषाम्) = उनमें भी (यः) = जो (अग्रे) = सर्वप्रथम (ज्योतिष्मान् मधुमान्) = ज्योति व माधुर्यवाला लोक है, (तस्मिन्) = उस लोक में (पुत्रैः) = अपने सन्तानों के साथ (जरसि) = [संश्रयेथाम्] पूर्ण वृद्धावस्था में प्रभुस्मरणपूर्वक आश्रय करनेवाले होओ। तुम्हारा घर स्वर्ग हो-प्रकाश व माधुर्य से पूर्ण हो यहाँ दीर्घजीवनवाले तुम अपने सन्तानों के साथ आनन्दपूर्वक रहो।
भावार्थ -
सात्त्विक अन्नों के सेवन के परिणामस्वरूप हमारे मस्तिष्क व शरीर दीस व शक्त हों। हमारे घरों में बड़ों का आदर व छोटों का प्रेमपूर्वक निर्माण हो। हमारा घर यज्ञशील पुरुषों का वह श्रेष्ठ स्वर्ग बने, जिसमें ज्योति व माधुर्य का व्यापन हो। इस स्वर्ग में हम दीर्घकाल तक पुत्रों के साथ, प्रभुस्मरणपूर्वक [जरसि-स्तुती] निवास करें।
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