अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 17
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - स्वराडार्षी पङ्क्तिः
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
स्व॒र्गं लो॒कम॒भि नो॑ नयासि॒ सं जा॒यया॑ स॒ह पु॒त्रैः स्या॑म। गृ॒ह्णामि॒ हस्त॒मनु॒ मैत्वत्र॒ मा न॑स्तारी॒न्निरृ॑ति॒र्मो अरा॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒:ऽगम् । लो॒कम् । अ॒भि । न॒: । न॒या॒सि॒ । सम् । जा॒यया॑ । स॒ह । पु॒त्रै: । स्या॒म॒ । गृ॒ह्णामि॑ । हस्त॑म् । अनु॑ । मा॒ । आ । ए॒तु॒ । अत्र॑ । मा । न॒: । ता॒री॒त् । नि:ऽऋ॑ति: । मो इति॑ । अरा॑ति: ॥३.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वर्गं लोकमभि नो नयासि सं जायया सह पुत्रैः स्याम। गृह्णामि हस्तमनु मैत्वत्र मा नस्तारीन्निरृतिर्मो अरातिः ॥
स्वर रहित पद पाठस्व:ऽगम् । लोकम् । अभि । न: । नयासि । सम् । जायया । सह । पुत्रै: । स्याम । गृह्णामि । हस्तम् । अनु । मा । आ । एतु । अत्र । मा । न: । तारीत् । नि:ऽऋति: । मो इति । अराति: ॥३.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 17
विषय - न अलक्ष्मी, न कृपणता
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (आपन:) = हमें स्(वर्ग लोकम् अभि) = स्वर्गलोक की ओर (नयासि) = ले-चलते हो। आप हमें ऐसी शक्ति प्राप्त कराते हो कि हम अपने घर को स्वर्गलोक बना पाते हैं। हम (जायया सह) = अपनी पत्नी के साथ (स्याम) = हों तथा (पुत्रैः सं) [स्याम] = पुत्रों के साथ संगत हों। सदा पत्नी के साथ सम्यक् धर्म का पालन करते हुए उत्तम पुत्रों को प्राप्त करें। २. हे प्रभो! (हस्तम् गृह्णामि) = जिस भी साथी का हाथ में पकड़ता हूँ-जिस भी युवति के साथ मेरा पाणिग्रहण होता है-(अनु मा एतु) = वह सदा अनुकूलता से मेरा अनुगमन करनेवाली हो। (अत्र) = इस गृहस्थ में, इस प्रकार अनुकूलता के होने पर (न:) = हमें (निति:) = अलक्ष्मी (मा तारीत्) = अभिभूत न करे [त् अभिभवे], (उ) = और (अराति:) = अदान की वृत्ति भी (मा) [तारीत्] = अभिभूत करनेवाली न हो। न तो हमारे घर में अलक्ष्मी का राज्य हो, न ही कृपणता का।
भावार्थ -
हम घर को स्वर्ग बना पाएँ। पत्नी व पुत्रों के साथ सदा प्रेम से रहें। पति पत्नी की अनुकूलता हो। अलक्ष्मी व कृपणता का हमारे यहाँ निवास न हो।
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