अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 35
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
ध॒र्ता ध्रि॑यस्व ध॒रुणे॑ पृथि॒व्या अच्यु॑तं॒ त्वा दे॒वता॑श्च्यावयन्तु। तं त्वा॒ दंप॑ती॒ जीव॑न्तौ जी॒वपु॑त्रा॒वुद्वा॑सयातः॒ पर्य॑ग्नि॒धाना॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठध॒र्ता । ध्रि॒य॒स्व॒ । ध॒रुणे॑ । पृ॒थि॒व्या: । अच्यु॑तम् । त्वा॒ । दे॒वता॑: । च्य॒व॒य॒न्तु॒ । तम् । त्वा॒ । दंप॑ती॒ इति॑ दम्ऽप॑ती । जीव॑न्तौ । जी॒वऽपु॑त्रौ । उत् । वा॒स॒या॒त॒: । परि॑ । अ॒ग्नि॑ऽधाना॑त् ॥३.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
धर्ता ध्रियस्व धरुणे पृथिव्या अच्युतं त्वा देवताश्च्यावयन्तु। तं त्वा दंपती जीवन्तौ जीवपुत्रावुद्वासयातः पर्यग्निधानात् ॥
स्वर रहित पद पाठधर्ता । ध्रियस्व । धरुणे । पृथिव्या: । अच्युतम् । त्वा । देवता: । च्यवयन्तु । तम् । त्वा । दंपती इति दम्ऽपती । जीवन्तौ । जीवऽपुत्रौ । उत् । वासयात: । परि । अग्निऽधानात् ॥३.३५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 35
विषय - प्रभु-दर्शन के लिए तीन बातें
पदार्थ -
१. हे प्रभो! आप (धर्ता) = धारण करनेवाले हैं। (पृथिव्याः धरुणे) = इस शरीररूप पृथिवी के धारण होने पर (धियस्व) = आप हमारे हदयों में धारण किये जाएँ, अर्थात् हम अपने हृदयों में आपका धारण करनेवाले बनें। संयम द्वारा शरीर को स्वस्थ रखकर हम हृदयों में आपका धारण करनेवाले हों। (अच्युतं त्वा) = [imperishable] अक्षर [अविनाशी] आपको (देवता:) = देववृत्ति के पुरुष (च्यावयन्तु) = अपने हृदयों में चुवाने [स्थापित करने] का प्रयत्न करें [make. form, create, bring abour]| देववृत्ति के बनकर हम हदयों में आपका दर्शन करनेवाले हों। २. (तं त्वा) = उन आपको (दम्पती) = पति-पत्नी (जीवन्तौ) = स्वयं उत्कृष्ट जीवन को धारण करते हुए (जीवपुत्रौ) = जीवित पुत्रोंवाले होते हुए (परि) = [Very much, excessively] खूब ही (अग्निधानात्) = कुण्ड में यज्ञाग्नि के आधान के द्वारा (उद्वासयात:) = अपने हृदयों में उत्कर्षेण बसाते हैं। यज्ञों को करते हुए ये पवित्र जीवनवाले बनकर हृदय में आपका दर्शन करते हैं।
भावार्थ -
हृदय में प्रभुदर्शन के लिए आवश्यक है कि हम [क] संयम द्वारा शरीर को स्वस्थ रक्खें [धरुणे पृथिव्याः], [ख] देववृत्ति के बनें [देवताः], [ग] खूब ही यज्ञशील हों [परिअग्निधानात]।
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