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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 7
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    प्राचीं॑प्राचीं प्र॒दिश॒मा र॑भेथामे॒तं लो॒कं श्र॒द्दधा॑नाः सचन्ते। यद्वां॑ प॒क्वं परि॑विष्टम॒ग्नौ तस्य॒ गुप्त॑ये दंपती॒ सं श्र॑येथाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्राची॑म्ऽप्राचीम् । प्र॒ऽदिश॑म् । आ । र॒भे॒था॒म् । ए॒तम् । लो॒कम् । अ॒त्ऽदधा॑ना: । स॒च॒न्ते॒ । यत् । वा॒म् । प॒क्वम् । परि॑ऽविष्टम् । अ॒ग्नौ । तस्य॑ । गुप्त॑ये । दं॒प॒ती॒ इति॑ दम्ऽपती । सम् । श्र॒ये॒था॒म् ॥३.७॥‍


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राचींप्राचीं प्रदिशमा रभेथामेतं लोकं श्रद्दधानाः सचन्ते। यद्वां पक्वं परिविष्टमग्नौ तस्य गुप्तये दंपती सं श्रयेथाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राचीम्ऽप्राचीम् । प्रऽदिशम् । आ । रभेथाम् । एतम् । लोकम् । अत्ऽदधाना: । सचन्ते । यत् । वाम् । पक्वम् । परिऽविष्टम् । अग्नौ । तस्य । गुप्तये । दंपती इति दम्ऽपती । सम् । श्रयेथाम् ॥३.७॥‍

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. हे (दम्पती) = पति-पत्नी! आप दोनों (प्राचीं प्राचीं प्रदिशम्) = आगे और आगे बढ़ने की प्रकृष्ट दिशा को (आरभेथाम्) = पहुँचनेवाले बनो [reach]|आपका कदम आगे की दिशा में ही बढ़े। निरन्तर उन्नतिपथ पर आप चलनेवाले बनो। (एतं लोकम्) = इस लोक को-इस उन्नति की दिशा को (श्रद्दधानाः सचन्ते) = श्रद्धामय पुरुष ही प्राप्त करते हैं। इस दिशा में प्रगति आसन नहीं होती-श्रद्धा से चलते चलना ही इस दिशा का मूलमन्त्र है। २. (यत्) = जो (वाम्) = आप दोनों का (पक्वम्) = घर में भोजन परिपक्व हुआ है, और (अग्नौ परिविष्टम्) = अग्नि में जिसका परिवेषण हुआ है, अर्थात् अग्नि में जिसकी आहुति दी गई है, (तस्य गुप्तये) = उसके रक्षण के लिए तुम (संश्रयेथाम्) = मिलकर प्रभु का सेवन करो। घर में मिलकर प्रभु की उपासना से उत्तम प्रवृत्तियाँ बनी रहती हैं। ऐसे घरों में यज्ञादि उत्तम कर्मों का लोप नहीं होता।

    भावार्थ -

    हम श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ने की दिशा में चलें। यज्ञशेष को खानेवाले बनें। उत्तमकों की प्रवृत्ति के अविच्छेद के लिए मिलकर प्रभु का उपासन करें।

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