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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 15
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    वन॒स्पतिः॑ स॒ह दे॒वैर्न॒ आग॒न्रक्षः॑ पिशा॒चाँ अ॑प॒बाध॑मानः। स उच्छ्र॑यातै॒ प्र व॑दाति॒ वाचं॒ तेन॑ लो॒काँ अ॒भि सर्वा॑ञ्जयेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वन॒स्पति॑: । स॒ह । दे॒वै: । न॒: । आ । अ॒ग॒न् । रक्ष॑: । पि॒शा॒चान् । अ॒प॒ऽबाध॑मान: । स: । उत् । श्र॒या॒तै॒ । प्र । व॒दा॒ति॒ । वाच॑म् । तेन॑ । लो॒कान्। अ॒भि । सर्वा॑न् । ज॒ये॒म॒ ॥३.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनस्पतिः सह देवैर्न आगन्रक्षः पिशाचाँ अपबाधमानः। स उच्छ्रयातै प्र वदाति वाचं तेन लोकाँ अभि सर्वाञ्जयेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वनस्पति: । सह । देवै: । न: । आ । अगन् । रक्ष: । पिशाचान् । अपऽबाधमान: । स: । उत् । श्रयातै । प्र । वदाति । वाचम् । तेन । लोकान्। अभि । सर्वान् । जयेम ॥३.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 15

    पदार्थ -

    १. (वनस्पति:) = पवित्र वानस्पतिक भोजन (देवैः सह) = दिव्यगुणों के साथ (न: आगन्) = हमें प्राप्त हो। हम वानस्पतिक भोजन ही करें। इस प्रकार मांसाहार से आ जानेवाली स्वार्थ व क्रूरता आदि की वृत्तियों से बचे रहें। यह भोजन (रक्षः) = रोगकृमियों को (पिशाचान्) = पैशाचिक वृत्तियों को (अपबाधमान:) = हमसे दूर रक्खे। २. (स:) = वानस्पतिक भोजन करनेवाला वह 'यम' [संयमी पुरुष] (उच्छ्यातै) = उत्कृष्ट मार्ग का सेवन करता है। यह (वाचं प्रददाति) = स्तुतिवचनों का उच्चारण करता है। (तेन) = इस प्रकार की वृत्ति के द्वारा (सर्वान् लोकान् अभिजयेम) = हम सब लोकों का विजय करनेवाले बनें । पृथिवीलोक, अन्तरिक्षलोक व द्युलोक का विजय करते हुए ब्रहालोक को प्राप्त करें।

    भावार्थ -

    वानस्पतिक भोजन हमें दिव्यवृत्तिवाला बनाता है-राक्षसीभावों को दूर करता है। हम उत्कृष्ट जीवनवाले बनकर प्रभुस्तवन की वृत्तिवाले बनते हैं और सब लोकों का विजय करते हुए ब्रह्मलोक को प्रास करते हैं।

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