अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 14
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
अ॒यं ग्रावा॑ पृ॒थुबु॑ध्नो वयो॒धाः पू॒तः प॒वित्रै॒रप॑ हन्तु॒ रक्षः॑। आ रो॑ह॒ चर्म॒ महि॒ शर्म॑ यच्छ॒ मा दंप॑ती॒ पौत्र॑म॒घं नि गा॑ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ग्रावा॑ । पृ॒थुऽबु॑ध्न: । व॒य॒:ऽधा: । पू॒त: । प॒वित्रै॑: । अप॑ । ह॒न्तु॒ । रक्ष॑: । आ । रो॒ह॒ । चर्म॑ । महि॑ । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । मा । दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । पौत्र॑म् । अ॒घम् । नि । गा॒ता॒म् ॥३.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं ग्रावा पृथुबुध्नो वयोधाः पूतः पवित्रैरप हन्तु रक्षः। आ रोह चर्म महि शर्म यच्छ मा दंपती पौत्रमघं नि गाताम् ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ग्रावा । पृथुऽबुध्न: । वय:ऽधा: । पूत: । पवित्रै: । अप । हन्तु । रक्ष: । आ । रोह । चर्म । महि । शर्म । यच्छ । मा । दंपती इति दम्ऽपती । पौत्रम् । अघम् । नि । गाताम् ॥३.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 14
विषय - 'पवित्रैः पूतः' ग्रावा
पदार्थ -
१. (अयम्) = यह (ग्रावा) = [गृणाति] स्तुतिवचनों का उच्चारण करनेवाला (पृथुबुन:) = विशाल ज्ञान के आधारवाला [बुध], (वयोधा:) = प्रकृष्ट जीवन को धारण करनेवाला, (पवित्रैः पूत:) = [नहि ज्ञानेन सदर्श पवित्रमिह विद्यते] ज्ञानों के द्वारा पवित्र जीवनवाला बना हुआ व्यक्ति [यम] (रक्षः अपहन्तु) = राक्षसी-वृत्तियों को अपने से दूर करे। प्रभुस्तवन करते हुए हम ज्ञान को अपने जीवन का आधार बनाएँ। यह ज्ञान हमें पवित्र व उत्कृष्ट जीवनवाला बनाए। हमारे जीवन में राक्षसीभाव न जमा हो जाएँ। २. हे साधक! तू (चर्म) = जीवन की ढाल के रूप में काम करनेवाले वीर्य के दृष्टिकोण से (आरोह) = उन्नत होने का प्रयत्न कर। वीर्य की ऊर्ध्वागति को सिद्ध कर । (महि शर्म यच्छ) = इस प्रकार घर में सभी को सुख देनेवाला बन। इस वीर्यरक्षण व संयत जीवन के द्वारा (दम्पती) = पति-पत्नी (पौत्रम् अघम्) = पुत्र-सम्बन्धी कष्ट को (मा निगाताम्) = प्राप्त न हों। वीर्यरक्षण व संयमबाले पति-पत्नी दीर्घजीवी व विधेय सन्तानों को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ -
पति-पत्नी में 'प्रभुस्तवन, ज्ञानरुचिता, संयम व वीर्यरक्षण' की भावना होने पर सन्तान उत्तम होते हैं।
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