Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 56
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    दक्षि॑णायै त्वा दि॒श इन्द्रा॒याधि॑पतये॒ तिर॑श्चिराजये रक्षि॒त्रे य॒मायेषु॑मते। ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑। दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दक्षि॑णायै । त्वा॒ । दि॒शे । इन्द्रा॑य । अधि॑ऽपतये । तिर॑श्चिऽराजये । र॒क्षि॒त्रे । य॒माय॑ । इषु॑ऽमते । ए॒तम् । परि॑। द॒द्म॒: । तम् । न॒: । गो॒पा॒य॒त॒ ।आ । अ॒स्माक॑म् । आऽए॑तो: । दि॒ष्टम् । न॒: । अत्र॑ । ज॒रसे॑ । नि । ने॒ष॒त् । ज॒रा । मृ॒त्यवे॑ । परि॑ । न॒:। द॒दा॒तु॒ । अथ॑ । प॒क्वेन॑ । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥३.५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दक्षिणायै त्वा दिश इन्द्रायाधिपतये तिरश्चिराजये रक्षित्रे यमायेषुमते। एतं परि दद्मस्तं नो गोपायतास्माकमैतोः। दिष्टं नो अत्र जरसे नि नेषज्जरा मृत्यवे परि णो ददात्वथ पक्वेन सह सं भवेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दक्षिणायै । त्वा । दिशे । इन्द्राय । अधिऽपतये । तिरश्चिऽराजये । रक्षित्रे । यमाय । इषुऽमते । एतम् । परि। दद्म: । तम् । न: । गोपायत ।आ । अस्माकम् । आऽएतो: । दिष्टम् । न: । अत्र । जरसे । नि । नेषत् । जरा । मृत्यवे । परि । न:। ददातु । अथ । पक्वेन । सह । सम् । भवेम ॥३.५६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 56

    पदार्थ -

    १. प्रभु कहते हैं कि (एतं त्वा) = इस तुझको (दक्षिणायै दिशे) = दाक्षिण्य की दिशा के लिए अर्पित करते हैं, जिस दिशा में (इन्द्राय अधिपतये) = इन्द्र अधिपति है। दाक्षिण्य का अधिपति इन्द्र है-परमैश्वर्यवाला है। किसी भी कार्य में दाक्षिण्य परमैश्वर्य को प्राप्त कराता ही है। (तिरश्चिराजये रक्षित्रे) = इस दाक्षिण्य की रक्षक पशु-पक्षियों की पंक्ति है। प्रभु ने चील में आदर्श उड़ान को स्थापित किया है, मधुमक्षिका में शहद के निर्माण की शक्ति को तथा सिंह में तरण के दाक्षिण्य को। मनुष्य इनसे प्रेरणा प्राप्त करता है। यह दिशा (यमाय इषुमते) = यमरूप प्रेरणावाली है। हमारे जीवनों के नियन्ता 'माता, पिता व आचार्य' दाक्षिण्य को प्राप्त करने की प्रेरणा दे रहे हैं। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ -

    निरन्तर आगे बढ़ते हुए हम दाक्षिण्य को प्राप्त करेंगे। इस दाक्षिण्य से हम इन्द्र-ऐश्वर्यशाली होंगे। इस दाक्षिण्य की रक्षा के लिए पशु-पक्षियों को स्थापित किया है। नियन्ता आयार्च आदि हमें इसके लिए प्रेरित करता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top