अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 48
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
न किल्बि॑ष॒मत्र॒ नाधा॒रो अस्ति॒ न यन्मि॒त्रैः स॒मम॑मान॒ एति॑। अनू॑नं॒ पात्रं॒ निहि॑तं न ए॒तत्प॒क्तारं॑ प॒क्वः पुन॒रा वि॑शाति ॥
स्वर सहित पद पाठन । किल्बि॑षम् । अत्र॑ । न । आ॒ऽधा॒र: । अस्ति॑ । न । यत् । मि॒त्रै: । स॒म्ऽअम॑मान: । एति॑ । अनू॑नम् । पात्र॑म् । निऽहि॑तम् । न॒: । ए॒तत्। प॒क्तार॑म् । प॒क्व: । पुन॑: । आ । वि॒शा॒ति॒ ॥३.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
न किल्बिषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रैः समममान एति। अनूनं पात्रं निहितं न एतत्पक्तारं पक्वः पुनरा विशाति ॥
स्वर रहित पद पाठन । किल्बिषम् । अत्र । न । आऽधार: । अस्ति । न । यत् । मित्रै: । सम्ऽअममान: । एति । अनूनम् । पात्रम् । निऽहितम् । न: । एतत्। पक्तारम् । पक्व: । पुन: । आ । विशाति ॥३.४८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 48
विषय - न किल्बिषं, न आधारः
पदार्थ -
१. (अत्र) = यहाँ हमारे जीवन में (न किल्बिषम् अस्ति) = न पाप है, (न आधार:) = [धृङ् अवध्वंसने falling] न पतन। (न) = न ही यह बात है (यत्) = कि (मित्रैः सम्) = मित्रों के साथ (अममान: एति) = [अम् to eat] इधर-उधर खाता हुआ घूमता है। आजकल के युग की भाषा में वह होटलों में मित्रों के साथ चायपार्टी ही नहीं करता रहता है। २. (न:) = हमारा (एतत् पात्रम्) = यह अन्न का पात्र (अनूनं निहितम्) = न न्यूनतावाला स्थापित होता है। हमारे घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती। इसप्रकार पवित्र जीवन में (पक्तारम्) = अपना परिपाक करनेवाले का (पक्व:) = यह परिपक्व हुआ-हुआ वीर्य (पुनः आविशाति) = फिर से शरीर में समन्तात् प्रवेश करता है-शरीर में ही व्याप्त हो जाता है।
भावार्थ -
हमारे जीवनों में न पाप हो, न पतन। न ही हम मित्रों के साथ इधर-उधर खाते पीते रहें। घर में हमारे अत्र की कमी न हो परिपक्वशक्ति को तपस्या के द्वारा शरीर में ही व्याप्त करने का प्रयत्न करें।
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