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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    यं वां॑ पि॒ता पच॑ति॒ यं च॑ मा॒ता रि॒प्रान्निर्मु॑क्त्यै॒ शम॑लाच्च वा॒चः। स ओ॑द॒नः श॒तधा॑रः स्व॒र्ग उ॒भे व्याप॒ नभ॑सी महि॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । वा॒म् । पि॒ता । पच॑ति । यम् । च॒ । मा॒त । रि॒प्रात् । नि:ऽमु॑क्त्यै । शम॑लात् । च॒ । वा॒च: । स: । ओ॒द॒न: । श॒तऽधा॑र: । स्व॒:ऽग: । उ॒भे इति॑ । वि । आ॒प॒ । नभ॑सी॒ इति॑ । म॒हि॒ऽत्वा ॥३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं वां पिता पचति यं च माता रिप्रान्निर्मुक्त्यै शमलाच्च वाचः। स ओदनः शतधारः स्वर्ग उभे व्याप नभसी महित्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । वाम् । पिता । पचति । यम् । च । मात । रिप्रात् । नि:ऽमुक्त्यै । शमलात् । च । वाच: । स: । ओदन: । शतऽधार: । स्व:ऽग: । उभे इति । वि । आप । नभसी इति । महिऽत्वा ॥३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. ['द्यौष्मिता पृथिवी माता'] धुलोक से वृष्टि होकर पृथिवी में अन्न उत्पन्न होता है। इस अन्नोत्पत्ति में धुलोक 'पिता' है तो पृथिवी 'माता' है। इस अन्न से ही हमारा जीवन धारित होता है। एवं धुलोक हमारा पिता है तो पृथिवी माता है। (यम्) = जिस अन्न को (वाम्) = दोनों (पिता) = वह लोकरूप पिता (पचति) = पकाता है, (च) = और (यं माता) = जिस ओदन को यह भूमिमाता उत्पन्न करती है, वह ओदन (रिप्रान् निर्मुक्त्यै) = सब रोगरूप दोषों से छुटकारे के लिए है, (च) = और यह अन्न (वाचः शमलात्) = [शम् अल-वारण] वाणी के अशान्त शब्दों के निवारण के लिए है। इन सात्विक अन्नों का सेवन करने पर-मांसाहार से दूर रहने पर हम नौरोग भी होंगे और क्रोध में अशान्त शब्दों का प्रयोग भी न करेंगे। २. (सः ओदन:) = वह धुलोक व पृथिवी से [पिता व माता से] दिया हुआ भोजन (शतधार:) = हमें सौ वर्ष तक धारण करनेवाला है, (स्वर्ग:) = हमें (सुखमय) = प्रकाशमयलोक में प्राप्त करानेवाला है। यह ओदन (महित्वा) = अपनी महिमा से (उभे नभसी व्याप) = दोनों लोकों को-पृथिवी व धुलोक को व्यास करनेवाला है। प्रथिवी शरीर' है, धुलोक 'मस्तिष्क' है। यह सात्विक वानस्पतिक अन्न ' शरीर व मस्तिष्क' दोनों को ही ठीक बनाता है। इससे शरीर नीरोग रहता है तथा मस्तिष्क दीप्त बनता है। मांसभोजन रोगों व क्रूर छल-कपटमयी प्रवृत्तियों को पैदा करता है।

    भावार्थ -

    हम वानस्पतिक भोजनों का ही सेवन करें। यह भोजन हमारे जीवनों को निर्दोष बनाएगा, दीर्घजीवन का साधन बनेगा, जीवन को सुखी व प्रकाशमय करेगा तथा शरीर को शक्तिसम्पन्न करता हुआ मस्तिष्क को दीप्ति-सम्पन्न करेगा।

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